जाने क्यों
फूलों के अंबार जहाँ
हम काँटों को चुन लेते,
सुंदरता की खान जहाँ
कुरूपता हम बुन लेते !
देव जहां आतुर नभ में
आशीषों से घर भरने,
स्वयं को ही समर्थ मान
लगते बाधा से डरने !
भेद जरा जाना होता
इस अनंत जग में आकर,
किसके बल पर टिका हुआ
किसे रिझाते गा गाकर !
सुख की आशा में डोले
झोली में दुःख भर जाता,
‘मन’ होने का ढंग यही
कुछ ना उसे और आता !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.02.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3610 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 13 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंसुख की आशा में डोले
जवाब देंहटाएंझोली में दुःख भर जाता,
‘मन’ होने का ढंग यही
कुछ ना उसे और आता !
बहुत ही बढ़िया सृजन, अनिता दी।
स्वागत व आभार ज्योति जी !
हटाएंसुख की आशा में डोले
जवाब देंहटाएंझोली में दुःख भर जाता,
‘मन’ होने का ढंग यही
कुछ ना उसे और आता !
बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमन
स्वागत व आभार कामिनी जी !
हटाएंवाह!!बहुत खूबसूरत सृजन 👌
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
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