चंद ख़्याल
पाया हुआ है सब जो खोजते हैं हम
शब्दों में ज्ञान बसता दिल का था भरम
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जाना हुआ सभी कहता है छोटा मन
कोई कमी नहीं तो फिर क्यों करे जतन
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छोड़ा यहाँ बाँधा वहाँ
मुक्ति से डरता है जहां
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मुश्किलों से डर जो ख़ुदा के द्वार आए
पाए नहीं उसे बस पीड़ा को बढ़ाए
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स्वप्नों में भयभीत हुआ मन
सीमाओं में खुद को बाँधा
कहीं नहीं थी कोई सीमा
जब भी आँख खोल कर देखा
शब्दों में ज्ञान बसता दिल का था भरम
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जाना हुआ सभी कहता है छोटा मन
कोई कमी नहीं तो फिर क्यों करे जतन
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छोड़ा यहाँ बाँधा वहाँ
मुक्ति से डरता है जहां
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मुश्किलों से डर जो ख़ुदा के द्वार आए
पाए नहीं उसे बस पीड़ा को बढ़ाए
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स्वप्नों में भयभीत हुआ मन
सीमाओं में खुद को बाँधा
कहीं नहीं थी कोई सीमा
जब भी आँख खोल कर देखा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 13 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (13-7-21) को "प्रेम में डूबी स्त्री"(चर्चा अंक 4124) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
मुश्किलों से डर जो ख़ुदा के द्वार आए
जवाब देंहटाएंपाए नहीं उसे बस पीड़ा को बढ़ाए
सच ! खुदा या ईश्वर को स्वार्थ के लिए ही याद करते हैं हम। उसे कभी बेवजह भी तो याद करें ।
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
जब भगवान बेवजह याद आने लगेगा तब ही उससे मिलना होगा
हटाएंआपने कविता के माध्यम से जो कहा अनीता जी, वह निश्चय ही चिन्तन-योग्य है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंयही तो होता है.इतनी आत्म-सीमित विचारणा ले कर परम तत्व को पाने की दुराशा पालना आदत में शुमार हो गया है.
जवाब देंहटाएंपरम तत्त्व को पाने की आशा मन में जग जाए इतना भी तो बहुत है, पा लिया है यह भ्रम न रहे तो बात एक न एक दिन बन जाएगी, ऐसा गुरुजन कहते हैं
हटाएंपरिधि में बंद परिदृश्यों सीमित दृष्टि प्रदान करते हैं।
जवाब देंहटाएंमन के पंख खोलकर विस्तृत सीमाहीन नभ की उड़ान संभव।
सारगर्भित दार्शनिक अभिव्यक्ति आपकी रचनाओं की विशेषता है।
प्रणाम
सादर
स्वागत व आभार श्वेता जी, इस सुंदर प्रतिक्रिया हेतु
हटाएंमन ही खींचे
जवाब देंहटाएंसीमा रेखा .
मन को ही
उन्मुक्त गगन में,
पंख फैलाये
उड़ते देखा.
सुन्दर ! अनीता जी.
वाह! कितने सुंदर शब्दों में आपने मन की फ़ितरत बयान कर दी है
हटाएंस्पष्ट गूँजते चंद ख्याल।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रवीण जी!
हटाएंआदरणीया मैम , बहुत ही सुंदर रचना। सच है दुख में सुमिरन सब करें , सुख में करे न कोई , जो सुख में सुमिरन करे ,तो दुख काहे को होई । आपकी इस कविता ने श्रीमद्भगवद्गीता का वो प्रसंग याद दिला दिया जब भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्मा और शरीर का अंतर बताते हैं । हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनंता!
हटाएंन जाने क्यों मन कभी स्वच्छंद होना चाहता है तो कभी खुद को ही बंधनों में जकड़ लेता है । सोच रही हूं सीमाहीन विचार कैसे आएँ ? गहन दर्शन
जवाब देंहटाएंअसीम से मिलन तो मौन में ही होता है
हटाएंजीवन का यही दर्शन है।
जवाब देंहटाएंभान होता है कि अब आँखें खुलना चाह रही है साथ ही यक्ष प्रश्न अब नहीं तो कब ? अति सुन्दर भाव ।
जवाब देंहटाएंसही है, अभी नहीं तो कभी नहीं !
हटाएंअसीमित है ईश्वर का आशीर्वाद!!
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा है आपने!
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंहर ख़्याल उम्दा है।
जवाब देंहटाएंछोटा मन ही तो मेहनत से कतराता है... आत्मा व परमात्मा की क्या कोई सीमा हो सकती है? आदमी केवल असली भान न होने तक ही सीमा में बंधा रहता है।
बहुत खूबसूरत।
नया ब्लॉग, नई रचना पौधे लगायें धरा बचाएं
मुश्किलों से डर कर ख़ुदा के घर आना ...
जवाब देंहटाएंअच्छा तो होता है समय पूरा कर के आना पर दुःख सहने की क्षमता कहाँ होती है सब के अंसार ...