बुधवार, नवंबर 23

उस भली सी इक ललक को

उस भली सी इक ललक को

   

जिस घड़ी आ जाये होश 

जिंदगी से रूबरू हों,

उसी पल में ठहर कर फिर 

 झांक लें खुद के नयन में !


बह रही जो खिलखिलाती 

गुनगुनाती धार नदिया,

चंद बूँदें ही उड़ेलें 

उस जहाँ की झलक पालें !


क्या यहाँ करना क्या पाना 

यह सिखावन चल रही है,

बस जरा हम जाग देखें 

और अपने कान धर लें !


नहीं माँगे सदा देती

 नेमतें अपनी लुटाती,

चेत कर इतना तो हो कि 

फ़टे दामन ही सिला लें !


पूर्णता की चाह जागे 

लगन से हर राह मिलती,

ला दिया जिसने सवेरा 

रात जिससे रोज खिलती !


उस भली सी इक ललक को

 धूप, पानी, खाद दे दें,

जो कभी बुझती नहीं है

 वह नशीली आग भर लें !


 

14 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 24 नवंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. यह ललक सदा बनी रहे- उकसाती रहे कुछ करने के लिए.

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    1. सही कह रही हैं आप, यही जीवन की ऊर्जा को दिशा देती है

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  4. यह ललक सदा बनी रहे बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना

    जवाब देंहटाएं
  5. जिस घड़ी आ जाये होश

    जिंदगी से रूबरू हों,

    उसी पल में ठहर कर फिर

    झांक लें खुद के नयन में !

    सुंदर , प्रेरक रचना ।

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    उत्तर
    1. बहुत दिनों बाद आपको यहाँ देखकर ख़ुशी हो रही है, स्वागत व आभार संगीता जी!

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