शनिवार, नवंबर 5

धरती

धरती 


धरती माँ है 

माँ की तरह 

धरती है अपनी कोख में संतति 

हज़ारों सूक्ष्म जीव 

कीट, मीन, तितलियाँ, पशु-पंछी

वन-जंगल और ‘मानव’ को भी 

जो घायल कर रहा है उसे 

कंक्रीट के जंगल उगाता  

जीते-जागते पर्यावरण को नष्ट करके 

धरा के गर्भ से तेल उलीच 

समंदरों को विषैला बनाता  

हज़ार जीवों के प्राण ले 

अतिक्रमण करता ही जा रहा है मानव 

धरती झेल रही थी 

तप्त हो रही अब  

 स्वस्थ नहीं है वह

भूमिकंप शायद उसकी

 कंपकंपाहट  है 

असमय वर्षा से 

मानो कोई सहला रहा है उसे 

अब भी समय है, चेते 

  संयमित हो यदि विकास

और  पीड़ा न दे उसे 

तो रह सकता है सुरक्षित

मानव ! वरना …. 


11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार यशोदा जी !

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  2. बहुत ही सुन्दर भावों से वसुधा माँ की पीड़ा को दर्शाती कविता मंत्रमुग्ध करती है नमन सह अभिनन्दन आदरणीया।

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    1. सुंदर प्रतिक्रिया हेतु साभार स्वागत !

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6-11-22} को "करलो अच्छे काम"(चर्चा अंक-4604) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  4. अब भी समय है चेते! सार्थक संदेश! साधुवाद!--ब्रजेन्द्र नाथ

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  5. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  6. ओंकार जी, अनीता जी, मर्मज्ञ जी, अभिलाषा जी व भारती जी आप सभी का स्वागत व हृदय से आभार!

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