शुक्रवार, नवंबर 18

यूँ ही कुछ ख़्याल

यूँ ही कुछ ख़्याल

दिल की गहराइयों में छिपा है जो राज 

वह शब्दों में आता नहीं 

जो ऊपर-ऊपर है 

वह सब जानते ही हैं 

उसे कविता में कहा जाता नहीं 

तो कोई क्या कहे 

इससे तो अच्छा है चुप रहे 

लेकिन दिल है, हाथ है 

कलम भी है हाथ में,  इसलिए 

 चुप भी तो रहा जाता नहीं 

मौसम के क़सीदे बहुत गा लिए 

अब मौसम भी पहले सा रहा भी नहीं

बरसात में गर्मी और सर्दियों में 

बरसात का आलम है 

सारे मौसम घेलमपेल हो गए हैं 

कब बाढ़ आ जाएगी कब सूखा पड़ेगा 

कुछ भी तो तय  रहता नहीं 

शरद की रात चाँद निकला ही नहीं 

खीर बनाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता न तब 

दिवाली की रात झमाझम बरसात हो रही थी 

दीपक जलाते भी तो कैसे 

जहाँ तालाब थे आज बंजर ज़मीन है 

जहाँ खेत थे वहाँ इमारतों का जंगल है 

दुनिया बदल रही है 

धरती गर्म हो रही और 

पीने के पानी का बढ़ा संकट है 

कविता खो गयी है आज 

वाहनों के बढ़ते शोर में 

ट्रैफ़िक जाम में फँसा व्यक्ति 

समय पर विवाह मंडप पहुँच जाए 

इतना ही बहुत है 

उससे और कोई उम्मीद रखना नाइंसाफ़ी होगी 

वह प्रेम भरे गीत गाए और रिझाए किसी को 

इन हालातों में यह नाकामयाबी होगी 

अब तो समय से दोनों पहुँच जाएँ मंडप में 

और निभा लें कुछ बरस तो साथ एक-दूजे का

और यही सही समय है इस कलम के रुकने का !

 


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