बूँद एक घर से निकली थी
अंधकार में ठोकर खाते
आँखें बंद किए चलते हैं,
जाने कौन मोह में फँस कर
अक्सर ख़ुद को ही छलते हैं !
छोटी-छोटी इच्छाओं के
बोझे तले व्यर्थ दबते हैं,
सिर पर गठ्ठर लादे, जाने
कब से बीहड़ पथ चलते हैं !
अनजाने ही रह जाते वह
अपने दिल की गहराई से,
जीवन की संध्या आ जाती
कान भरे हैं शहनाई से !
सागर से मिल सकती थी जो
मरुथल में दम तोड़ रही है,
बूँद एक घर से निकली थी
जाने क्या वह जोड़ रही है !
अपनी ही ऊँचाई से बच
बौना होता जाता मानव,
पहचाने जाते थे पहले
अब सबके भीतर ही दानव !
दुख की ठोकर जब भी लगती
जाग देखता है सोया मन,
पीड़ा ही पथ पर रखती है
सुख में तो भटका है जीवन !
पर्वत जैसा दुख भी आये
सागर सुख का ठाँठे मारे,
आँख मूँद कर चलते पथ में
ज्योति निरंतर जलती द्वारे !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जोशी जी !
हटाएंबहुत सुंदर संदेशात्मक रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं में निहित आत्मप्रक्षालन का पवित्र सुविचार मन को शांति प्रदान करते हैं।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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