शांतता
आज हम थे और सन्नाटा था
सन्नाटा ! जो चारों और फैला था
बहा आ रहा था न जाने कहाँ से
अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे
शायद अनंत की बाहों से झरता था !
आज मौन था और थी चुप्पी घनी
सब सुन लिया जबकि
कोई कुछ कहता न था
कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी
जैसे श्वास भी आने से कंपता था!
कोई बसता है उस नीरवता में भी
उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा
छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की
मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा
यह जो आदत है पुरानी उसकी
बेवजह शोर मचाने की
छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल
उस एकांत से मिल पायेगा तभी !
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