गोपी पनघट-पनघट खोजे
सुंदरता की खान छिपी है
प्रेम भरा कण-कण में जग के ,
छोटा सा इक कीट चमकता
रोशन होता सागर तल में !
बलशाली का नर्तन अनुपम
भीषण पर्वत, गहरी खाई,
अंतरिक्ष अगाध गहरा है
क़ुदरत जाने कहाँ समाई !
खोज रहे हैं कब से मानव
महातमस छाया है नभ में,
शायद पा सकते हैं उसको
धरित्री के भीतर अग्नि में !
नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों
गोपी पनघट-पनघट खोजे,
उसके भीतर छिपा हुआ है
घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !
रस्ता भटक गया जो राही
भटक-भटक कर ही पहुँचेगा,
गिरते-पड़ते, रोते-हँसते
अपनी भूलों से सीखेगा !
वाह!! अद्भुत!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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