बुधवार, जुलाई 28

अधूरा है जग

अधूरा है जग

हर कहानी है अधूरी
हर मन यहाँ कुछ खोजता
रहता सदा अपूर्ण जग
और राज यही खोलता

सीलें इधर सीलें उधर
पैबंद ही हैं हर तरफ
पांव सिकोडें सिर खुले
धुंधले पड़े जीवन हरफ

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों
थामें इसे वह छूटता
सोना नहीं पीतल था वह
हर भ्रम यहाँ है टूटता

मिलती नहीं जग में कभी
जिस जीत की तलाश है
अपने ही भीतर झांक लें
खोलें उसे जो पाश है


अनिता निहालानी
२८ जुलाई २०१०

2 टिप्‍पणियां:

  1. सीलें इधर सीलें उधर
    पैबंद ही हैं हर तरफ
    पांव सिकोडें सिर खुले
    धुंधले पड़े जीवन हरफ

    विचारों की गहराई लिए हुए बहुत सुन्दर रचना ,,,,,,आपके ब्लॉग पर प्रथम बार आया हूँ ,,,,ख़ुशी हुई ,,,,मगर अफ़सोस भी...! देर से जो आया ,,समय निकालकर आपकी पिछली रचनाएँ भी पढता हूँ ,,,,फिलहाल इस प्रभावशाली रचना के लिए बधाई और आभार

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  2. धन्यवाद! काव्य कला में आपकी रूचि ऐसे ही बढती रहे!

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