शुक्रवार, जुलाई 9

एक अनोखा बचपन

एक अनोखा बचपन

नन्हा पुनः आकाश को एकटक देखता पाया गया, माँ ने जब सारा घर छान लिया तो उसे ध्यान आया कि कहीं पिछली बार की तरह वह बगीचे में घास पर लेट कर आकाश की नीलिमा में तो नहीं खो गया I आहट पाते ही वह चौंक कर उठ बैठा, काले लम्बे व घने केशों से सजा उसका साँवला चेहरा व बड़ी-बड़ी आंखें सभी को मंत्र मुग्ध कर लेती थीं I
“बेटा, तू आकाश में क्या खोजता फिरता है?
“माँ, मैं आकाश के पार जाना चाहता हूँ, जाने क्या है उसके पार, तुम जानती हो क्या?”
माँ खिलखिला कर हँस पड़ी. “वहाँ कुछ भी नहीं है बेटा, यह नीला रंग भी तो आभास मात्र है I”
“नहीं, वहाँ कुछ है, जरूर कुछ है, एक दिन मैं उसको ढूँढ निकालूँगा I”
ठीक है, अभी तो तुझे स्कूल के लिये तैयार होना है I
स्कूल पहुंचा तो मित्रों ने घेर लिया, आज भी उसे दो छात्रों के बीच मध्यस्थता करानी थी I उसका निर्णय सब आँख मूंद कर मानते थे I अध्यापक भी उसकी निर्दोष आंखों और तीव्र बुद्धि से प्रभावित थे I एक वर्ष में दो कक्षाएं पास करता हुआ वह आठ साल की उम्र में छठी का विद्यार्थी था I बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी भी उससे बातें करते अक्सर देखे जा सकते थे I जब कोई उससे पूछता वह बड़ा होकर क्या करेगा तो सदा एक ही जवाब वह मुस्कुराते हुए देता था, मैं दूर देशों तक लोगों से मिलने जाऊँगा, वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं I पूछने वाला चकित हो जाता तो वह हँस पड़ता, बच्चे के मुँह से निकली बात को महत्वहीन समझ कर लोग भुला देते I
छोटी बहन उसकी सबसे बड़ी प्रशंसिका थी, जब तक वह घर में रहता आगे-पीछे घूमती रहती, फिर भी कभी-कभार उनमें झगड़ा हो जाता तो वह चुपचाप अपने काम में लग जाता जैसे कुछ हुआ ही न हो I बहन थोड़ी देर मुँह फुलाए रखती फिर खुद ही धीरे से आकर बात करने लगती क्योंकि वह तो तब तक झगड़े की बात भूल ही चुका होता था I दोनों मिल कर खेलों की नई-नई योजनाएँ बनाने लगते I वह जब ध्यान मग्न होता तो बहन उसका चेहरा देखती रह जाती, उसे छोटी उम्र से ही अहसास हो गया था कि उसका भाई अन्य सब बच्चों से अलग है I जब बच्चे बिना किसी जरूरत के फूल-पत्ती व टहनियाँ तोड़ते हुए निकल जाते वह पूजा के लिये फूल तोड़ने में भी झिझकता था, एक चींटी तक को मारना भी उसे मंजूर नहीं था, स्कूल में पैर की ठोकर से फुटबाल उछालते समय जब अन्य छात्रों को खुशी से भरे देखता तो उसका कोमल हृदय कांप जाता, वह अपने पैरों की ओर देख कर सोचता इनसे किसी को ठोकर मारना तो दूर हल्की सी चोट भी नहीं लगाई जा सकती I जब दूसरे बच्चे मैदान में धमा-चौकड़ी मचाते वह नयन मूंदे जाने क्या सोचा करता नहीं तो निकट के मंदिर के पुजारी की गतिविधियों को ध्यान से देखा करता I कभी-कभी मुहल्ले के बच्चे खेल खत्म कर उसके निकट आ बैठते और वह उन्हें काल्पनिक मूर्ति की पूजा करना सिखाता, ध्यान करना सिखाता I कई श्लोक उसे कंठस्थ थे अपनी मधुर आवाज में जब गाता सब मौन हो सुनने लगते I
पिता एक सरकारी दफ्तर में अधिकारी थे, उनका सामान बैठक में बड़ी मेज पर एक छोटी अटैची में रखा रहता था, कुछ फाईलें, जरूरी कागजात, पेन, चश्मा तथा चाबियाँ यही सब था उस सामान में I उसने देखा कि पिता जब दफ्तर के लिये तैयार होते हैं तो सारा घर उनके आगे पीछे घूमता है, माँ खाना बनाते-बनाते उनके कपड़े आदि रख जाती, नौकर जूते पॉलिश कर ले आता I पिता गम्भीर मुद्रा में सब पर हुकुम चलाते I एक दिन सोने से पहले उसने अटैची से सारा सामान निकाल कर अपने खिलौने उसमें रख दिए, पिता ने अगले दिन रोज की तरह अटैची उठाई व दफ्तर चले गए I वहाँ अपने सामान की जगह खिलौने देख पहले तो सकपका गए पर साथियों को हँसते देख खुद भी हँसने लगे I घर आने तक सोचते रहे कि उनके बेटे ने ऐसा क्यों किया, शायद वह उन्हें समझाना चाहता था कि जिन फाइलों को लेकर वह इतने गम्भीर हो जाते हैं, वे खिलौनों से बढकर कुछ नहीं I काम को अति महत्व देने से जीवन हाथ से छूट जाता है I घर आकर बालक को बुलाया तो वह चुपचाप आकर खड़ा हो गया, इशारे से उन्होंने पूछा, मेरा सामान कहाँ है? वह हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गया, जहाँ सलीके से सारी फाइलें व अन्य चीजें रखीं थीं I पुत्र की मासूमियत देख वह मुस्कुरा दिए I जीवन का एक सूत्र आज इस नन्हे बालक ने उन्हें पकड़ा दिया था I
उसे दादी से बहुत लगाव था पर उनकी कुछ बातोँ का विरोध करने से वह नहीं चूकता था, चाहे इसके लिये उनके कोप का भाजन भी बनना पड़े I ग्वाले को घर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं थी क्योंकि वह एक हरिजन था I वह जानबूझ कर उसके साथ खेलता कभी उसके घर भी चला जाता I बाद में इसके लिये दादी की डाँट सहनी पड़ती I घर में काम करने वाली छोटी बालिका के साथ भी उसकी सहानुभूति थी, दिन भर उसको काम करते देख उसका मन करुणा से भर जाता I भगवदगीता के श्लोक उसे केवल याद ही नहीं थे वह जीवन में उनका पालन भी कर रहा था I दादी रोज संध्या बेला में एक आसन बिछा कर पूजा की थाली लिये भगवान की प्रतीक्षा करती थी, जाने किस रूप में वह आ जाएँ, इसलिए हर अतिथि को आदर सहित खिलाती व उपहार देती, उसे इस खेल में बहुत मजा आता I परमात्मा के प्रति उसका सहज प्रेम उसके जीवन की हर बात से जाहिर हो रहा था I
उस दिन वह जल्दी-जल्दी स्कूल से लौटा, सुबह उसकी पूजा व ध्यान अधूरा रह गया था क्योंकि घर में कुछ काम था I पर उसने कमरे में जाते ही देख लिया पूजा का स्थान खाली था, माँ ने फिर सब सामान हटा दिया था, माँ भोजन लाई तो उसने मुँह फेर लिया, थोड़ी देर बाद वह सारा सामान ताजे फूलों के साथ रख कर जाने लगी तो उसने कनखियों से उसकी नम आँखों को देखा और वह दौड़ कर उसके गले से लिपट गया I उसे याद आया पिछले हफ्ते ही उसने माँ को नाराज किया था जब स्कूल टूर से लौटने पर उसका खाली बैग देख कर माँ ने पूछा था “तेरे कपड़े कहाँ हैं, ओढ़ने व बिछाने की चादरें व शाल कहाँ हैं?”
कुछ और पूछने का मौका न देते हुए वह मुस्कुरा कर बोला, “मेरे मित्रों को तुम्हारी पसंद बहुत भाती है, मेरा सब कुछ तुम्हीं तो लाती हों माँ I”
पर माँ रोज-रोज की इस लुटाऊ वृत्ति से तंग आ चुकी थी सो खूब डाँट सुनायी I लेकिन दोनों जानते थे कि इस डाँट का असर ज्यादा दिन तक रहने वाला नहीं है I माँ को भय था कि इतना वैराग्य कहीं उसे घर से दूर न ले जाये I ध्यान में डूबे अपने पुत्र को देख कभी उसके शैशवकाल कि वह घटना याद आ जाती जब छत में लगी छड़ से लोहे की भारी जंजीरों सहित उसका लकड़ी का पालना नीचे आ गिरा था वह तो बेहोश ही हो गई थी पर नन्हा शिशु मुस्का रहा था I थोड़ा सा बड़ा होने पर जब वह भाषा का ज्ञान सीख गया उसकी कही हर बात मानता था, वही बालक अब सारा समय मंदिरों, मसजिदों, व चर्चों के चक्कर लगाता रहता था I
माँ पुत्र के इस व्यवहार से चिंतित हो जाती तो वह उसे आश्वस्त करता, माँ के कहने पर उसने पढ़ाई जारी रखी तथा भविष्य में नौकरी के लिये इंटरव्यू देने के लिये भी मान गया, पर उसके जीवन का उद्देश्य स्पष्ट था, वह सरे विश्व के लोगों के जीवन को खुशियों से भर देना चाहता था I
अनिता निहालानी
९ जुलाई २०१०

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