प्रिय ब्लॉगर साथियों, मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ, मुझे खामोश ख़ामोशी
और हम की कवितायें अच्छी लगीं, जो अपने होते हैं उनके साथ हम अपना सुख बाँटना
चाहते हैं, इस श्रंखला का मात्र यही उद्देश्य है कि आप सब भी इन्हें पढ़कर आनंदित
हों.
स्नेहिल परिवार में
जन्मीं शन्नो अग्रवाल इस श्रंखला की अगली कवयित्री हैं. गृहस्थी की
जिम्मेदारियों के कारण इनके बाल्यावस्था की लेखन प्रतिभा मन में ही सोयी पड़ी थी,
जो कुछ वर्ष पहले से पुनः निखर कर सामने आने लगी है. खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी दस कवितायें हैं, सभी पठनीय हैं और कोमल भावों की एक सरिता बहाती
हैं. दीप जले, मुफलिस का दिया, मानव दीप इन तीन कविताओं का
मूल स्वर प्रकाश है, ऐसा प्रकाश जो भीतर-बाहर सब कुछ रोशन कर देता है. चाँद तुम
चाँदनी मैं तेरी तथा प्रेम रूप दो प्रेम कवितायें हैं. मेरी नन्ही
कली व बचपन में कवयित्री बचपन के मासूम पलों को पुनः-पुनः जीना चाहती
है. जीवन क्रम जिंदगी की असलियत को समझने की कोशिश है और शायद फुरकत में
तथा तपिश दो उदासी के रंग में डूबी सुंदर नज्में हैं.
चाँद तुम मैं चाँदनी
मेरी में कवयित्री उस
अज्ञात प्रियतम से वार्तालाप करती है जो उसकी पहुँच से बहुत दूर सही पर दिल के
बहुत करीब है, क्योंकि प्रेम किसी भी तरह की दूरी, बंधन को नहीं स्वीकारता.
जमीं आसमां का फर्क
है तो क्या
तुम धडकनों में आकर
बसे हो मेरी
चाँद तुम हो मैं
चाँदनी तेरी
आसमां पे हो तुम मैं
हूँ कदमों तले
मैं भटकती यहाँ तू
वहाँ पे पले
महफिलें सजी हैं
तारो की वहाँ
हैरान सा है हर नजारा
यहाँ
तन्हाइयों का दामन
है फैला हुआ
साज तुम हो मैं
रागिनी तेरी
...
..
अकेले न तुम जा
सकोगे
रात की शबनमी पलकों
पे गिरा
मेरे दामन का तुमने
पकड़ा है सिरा
तुम हमकदम मेरे मैं
हूँ साया तेरा
..
जमीं आसमां का फर्क
है तो क्या
प्रेम का बिना यह
सृष्टि अधूरी है बल्कि उसका अस्तित्त्व ही प्रेम पर टिका है, इसी परम सत्य
का प्रकाशन होता है प्रेम रूप में-
प्रेम सहारा प्रेम
किनारा
दर दर भटके ये
बंजारा
प्रेम सत्य है, है
गुरुद्वारा
इस बिन जीवन सूना
सारा
प्रेम का दीपक जब
जलता है
उजियारा मन में करता
है
..
सबका बनेगा यही
सहारा
बिन इसके मन
हारा-हारा
..
प्रेम की खातिर शोर
मचा है
रहती जीवन गागर खाली
ज्यों बिन बगिया
होवे माली
प्रेम है धड़कन प्रेम
साँस है
धूप-छाँव में यही आस
है
..
यही आरती यही ज्योत
है
मन उमंग का यही स्रोत
है
..
बन इसके मन उजड़ा
उपवन
बिम्ब बना ज्यों
सुना दर्पण
दीया चाहे दीवाली का
हो या पूजा के थाल का सभी के भीतर आह्लाद भर देता है, ऋषियों ने अंधकार से प्रकाश
की ओर जाने की जो प्रार्थना वेदों में गाई है वह हम सभी के हृदय की मूल प्रार्थना है-
दीप जले
आओ मिलकर दीप उठाकर
साथ चलें
घर-बाहर रोशन कर दें
सारा
दीप जलें
..
तम दूर करें जब
ज्योति जले
हो रजनी निसार
नूतन आशा से मन हो
पावन
अब मिलकर
निर्मलता का दीपक हो
प्रज्वलित
सबके अंदर
..
सुख सौरभ की करें
कामना
नभ के तले
जग जीवन में प्रेम
के दीपक
सदा जलें
मुफलिस का दीया
मुफलिस का दिया हूँ
बाती का पिया हूँ
आंधी के झोंकों में
मर-मर कर जीया हूँ.
..
झरोखों और कगारों पे
लोगों की मजारों पे
पिघलता हूँ बैठ कर
खुशी-गम के नजरों
पे.
..
मानव-दीप
मिट्टी, कांच और
धातु के
कितने तरह के दिये
बनाये जाते हैं
जलाये जाते हैं
बुझाये जाते हैं
और हम मानव भी
मिट्टी के नए दिए की
तरह
हाड़-मांस के पुतलों
के
आकार में
धरती पर आते हैं
जलाते हैं.
टिमटिमाते हैं
..
फिर जीवन की लौ के
बुझते
उन्ही मिट्टी के
दीयों से
गल जाते हैं
और मिट्टी में मिल
जाते हैं.
“बचपन के दिन भी
क्या दिन थे”, हममें से किसने नहीं पुकारा होगा बचपन को, इंसान कितना भी बड़ा हो
जाये उसका बचपन यादों में सदा बसा ही रहता है, माँ अपने बच्चे में उसे पुनः जीती
है, मेरी नन्ही कली में कवयित्री उस बचपन को याद करती है जो चाँदनी सा पावन
है और गुनगुनी धूप सा मोहक..
तू वह अहसास है दिल
का
जिसे माँगा था
बरसों तक
...
तेरा बचपन आकर मुझको
आज भी है
गुदगुदा जाता
तोतली बातों का
मीठापनन जाने क्या
बुदबुदा जाता
चाँदनी बन बरसी आँगन
में
या जैसे कुछ धूप
गुनगुनी
..
तू है मेरे आंचल की
खुशबू
जिससे घर-आँगन महका
है
तेरे मासूम इशारों
पे चल
दिल फिर से
लहका है
बचपन
मेरे बचपन बता तू
क्यों चला गया
इस जमाने के गम भी
हमें दे गया
न जाने कब वो तेरी
कड़ी खो गयी
वो हँसी खो गयी मैं
बड़ी हो गयी
...
जादू नगरी में चंदा
और तारो का घर
जहाँ पे लगती नहीं
बच्चों को नजर
..
ढूँढती हूँ वह सुकूं
पर अब मिलता नहीं
फूल कोई भी मुरझा के
खिलता नहीं
वो बेफिक्री के
लम्हे सभी खो गए
तू कहीं खो गया और हम
कहीं खो गए
इस जगत में सब कुछ
पल-पल बदल रहा है, आज जहाँ रौनक है कल वहाँ मातम भी हो सकता है..जहाँ वसंत है वहाँ
पतझड़ भी आता है.. सुख-दुःख के ताने-बने से बुनी है यह जीवन की चादर...तपिश
में उस अनाम दुःख की चर्चा कवयित्री करती है जो बाँटने से हल्का भी हो जाता है..
शायद फुरकत में
न कोई महकता गुलाब
खामोश है है हर मंजर
कहीं छिपा है आफ़ताब
बादल तो नहीं हैं
फिर भी
आज उदास है आसमां
कहाँ है रौनक उसकी
कहाँ है उसका वो गुमां
जो बारिश हुई कल रात
गीला-गीला सा है
समां
नाजिशे-गुलिस्तां वो
समां
कहाँ है उसका जमजमा
तपिश
सुनते हैं कि
ठीक हो जाते हैं
सही मरहम से
कुछ घाव
बुझ जाते हैं
बरसों से मन में
जलते हुए
कुछ अलाव
पर उनका क्या?
जो हमेशा दुखते
रह जाते हैं
और जब मन
हर तरफ से हो हो हारा
..
मुझे भान है सखी
कि तुमसे मिलकर
उन लम्हों में
उस अपनत्व में
अनचाहे, अनजाने ही
जो बरसी घटा
गम भी हल्का हुआ
निराशा का कोहरा भी
जीवन की सुगंध को
बिखेर कर सभी को एक न एक दिन इस संसार को त्याग के जाना ही होगा..जैसे सूरज ढलता
है अपनी रश्मियाँ बिखरा कर ठीक उसी तरह..जीवन के इस शाश्वत तथ्य को कवयित्री ने
सरल सहज प्रवाहमयी भाषा में प्रस्तुत किया है अंतिम कविता जीवन का क्रम में..
नभ में रंगो की छटा ऐसी
ही थी
लेकिन अब ये जीवन की
संझा है
सुबह ही तो आकाश के
कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित
हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला
यात्री
बन कर चल पड़ा था
..
दिन भर अपनी ऊर्जा
को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की
ऊष्मा
धरती को विभोर करती
रही
...
और अब संझा के आगोश
में
निढाल हो चुका है
वही सूरज
..
कल यही सूरज फिर उसी
उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा
लेकर आएगा
अपना कर्त्तव्य पूरा
करने
फिर शुरू होगा वही
जीवन का क्रम
..
सूरज की ऊष्मा का
स्पंदन
धरती की रग रग में
समा जाना
फिर अपने जीवन के
अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित
करके डूब जाना
शन्नो अग्रवाल जी कि
कविताओं को पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि यदि हम जीवन को गहराई से जान सकें तो वह दीया
उपलब्ध हो जायेगा जो भीतर-बाहर प्रेम की सुगंध बिखेर सकता है, जो मन को सदा शिशु
की तरह ताजा रख सकता है, आशा है आप सभी सुधी पाठकों को भी इन सुंदर कविताओं का
रसास्वादन मिलेगा. उनके सुखद भविष्य की कामना करते हुए मैं उन्हें बधाई देती हूँ.
is shrankhla ko jari rakhiye .aabhar
जवाब देंहटाएंशिखा जी, अभी तो आधा सफर तय हुआ है..अभी आठ कवि-कवियत्रियों की कवितायें शेष हैं.
हटाएंआप समीक्षक हों या न हों आपकी समीक्षा अच्छी लगती है।
जवाब देंहटाएंमनोज जी, आपका स्वागत व आभार ! शन्नो जी का इ मेल पता य बलॉग का पता उन्होंने पुस्तक में नहीं दिया है.
हटाएंआपकी लेखनी से सुंदर कविताओं का रसास्वादन करना आनंद से भर देता है..आभार..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा....
जवाब देंहटाएंअमृता जी व कैलाश जी, आपका स्वागत व आभार !
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