क्षण क्षण बजती है रुनझुन
दीन बना लेते हम स्वयं को
ऊंचा उठने की खातिर,
जो जैसा है श्रेष्ठ वही है
हो वैसे ही जग जाहिर !
फूल एक नन्हा सा हँसता
अपनी गरिमा में खिलकर,
होंगे सुंदर फूल और भी
पर न उसे सताते मिलकर !
मानव को यह रोग लगा है
खुद तुलना करता रहता,
दौड लगाता पल-पल जग में
उर संशय भरता रहता !
जिसको देखो दौड़ रहा है
जाने क्या पाने की धुन,
पल भर का विश्राम न घटता
क्षण क्षण बजती है रुनझुन !
ठहर गया जो अपने भीतर
खो जाते हैं भेद जहाँ,
थम जाती है जग की चक्की
जीवन लगता खेल वहाँ !
अनीता जी आपकी लेखनी आपके विचारों की तरह ही पावन है ...!!बहुत सुन्दर लिखा है ..!!
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ...!!
मानव को यह रोग लगा है
जवाब देंहटाएंखुद तुलना करता रहता,
दौड लगाता पल-पल जग में
उर संशय भरता रहता !
बिलकुल सही कहा है ... बहुत सुंदर प्रस्तुति
वाह....बहुत ही उम्दा....शानदार ।
जवाब देंहटाएंआज की हकीकत...बहुत खूब |
जवाब देंहटाएंसादर |
रुनझुन बजती...गहन अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंकविता का लय, प्रवाह और अर्थ गहरे तक मन को भाता है।
जवाब देंहटाएंदीन बना लेते हम स्वयं को
जवाब देंहटाएंऊंचा उठने की खातिर,
जो जैसा है श्रेष्ठ वही है
हो वैसे ही जग जाहिर !
सही कहा है दीनता का आवरण क्यों, सच्चाई तो सामने आकर ही रहती है.
ठहर गया जो अपने भीतर
जवाब देंहटाएंखो जाते हैं भेद जहाँ,
थम जाती है जग की चक्की
जीवन लगता खेल वहाँ !
....शाश्वत सत्य...गहन जीवन दर्शन का बहुत सुन्दर चित्रण...आभार