एक अजाना मौन कहीं है
कभी उत्तंग नभ को छूतीं
कभी क्लांत हो तट पे सोतीं,
सागर को परिभाषित करतीं
उन लहरों का स्रोत कहीं है !
कभी बुद्ध करुणानिधि बनता
रावण सा भी व्यर्थ गर्जता,
दुनिया जिसके बल पर चलती
उस मानव का अर्थ कहीं है !
अंतर को मधु से भर जाते
जोश बाजुओं में भर जाते,
विमल संग से हृदय पिघलता
उन गीतों का मर्म कहीं है !
भू की गहराई में सोया
नभ की ऊँचाई में खोया,
उर से जिसके शब्द फूटते
एक अजाना मौन कहीं है !
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