शुक्रवार, जनवरी 12

कदमों में भी राहें हैं



कदमों में भी राहें हैं

अभी जुम्बिश भुजाओं में
कदगों में भी राहें हैं,
अभी है हौसला दिल में
गंतव्य पर निगाहें हैं !

परम  दिन-रात रचता है
जगती नित नूतन सजती,
नींदों में सपन भेजे
जागरण में धुनें बजतीं !

चलें, हम थाम लें दामन
इसी पल को अमर कर लें,
छुपा है गर्भ में जिसके
उसे देखें, नजर भर लें !

अभी झरने दें शब्दों को
प्रस्तर क्यों बनें पथ में,
सृजन का स्रोत है अविचल
बहाने दें सहज जग में !

अभी मुखरित तराने हों
विरह के भी प्रणय के भी,
किसी के अश्रु थम जाएँ
वेदना  से विजय के भी !

नहीं रुकना नहीं थमना
अभी तो दूर जाना है,
जिसे अपना बनाया है
उसे जग में लुटाना है !


8 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'रविवार' १४ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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  2. गंतव्य जब तक सांसें हैं तब तक दूर रहता है प्रेरित करता है उसे पाने के लिए ...
    अच्छी रचना है ...

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