शुक्रवार, जनवरी 18

द्वार खुलें बरबस अनंत में



द्वार खुलें बरबस अनंत में

कहाँ छुपा वह मन मतवाला
गीत गुने जिसने सावन के,
एक सघन सन्नाटा भीतर
नहीं चरण भी मन भावन के !

शून्य अतल पसरा मीलों तक
मदिर, मधुर सा कोई सपना,
कुछ भी नजर नहीं आता है
बेगाना ना कोई अपना !

क्या कोई बोले किससे अब
दूजा रहा न कोई जग में,
कदमों में राहें सिमटी हैं
द्वार खुलें बरबस अनंत में !


4 टिप्‍पणियां:

  1. गहन दर्शन बहुत सुन्दर भावमय शब्दों में...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  2. मन के भावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति..

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  3. जब अनंत के द्वार खुलते हैं तो राह आसान हो जाती है ... पंख लग जाते हैं ... सुख दुःख का आभास कहाँ रहता है चिरन्त में ...
    सुन्दर भावपूर्ण रचना ...

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