गाकर कोई गीत मुक्ति का
मन नि:शंक हो, ठहरे जल सा
जब इक दर्पण बन जाए,
झांके कहीं से आ कोई
निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !
मन उदार हो, जलते रवि सा
जब इक दाता बन जाए,
हर ले सारी उलझन कोई
निज मुदिता से भर जाए !
मन बहता हो,निर्मल जल सा
जब इक निर्झर बन जाए,
आकर कोई सारे जग की
शीतलता फिर भर जाए !
मन विशाल हो, छाया हर सूँ
विमल गगन सा बन जाए,
गाकर कोई गीत मुक्ति का
हर बंधन को हर जाए !
मन बहता हो,निर्मल जल सा
जवाब देंहटाएंजब इक निर्झर बन जाए,
आकर कोई सारे जग की
शीतलता फिर भर जाए ! की आशा में हम रोज ब रोज ढूबते उतराते हैं अनीता जी----बहुत सुंदर पंक्तियां, मन तृप्त हुआ पढ़कर ।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१०-०९-२०२१) को
'हे गजानन हे विघ्नहरण '(चर्चा अंक-४१८३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार !
हटाएंमन नि:शंक हो, ठहरे जल सा
जवाब देंहटाएंजब इक दर्पण बन जाए,
झांके कहीं से आ कोई
निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !
Very meaningful lines. Great work god bless you
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंमन बहता हो निर्मल जल सा ...
जवाब देंहटाएंसच है अगर मन इतना शुद्ध हो जाता है तो इश्वर स्वयं उसको साध लेते हैं ...
फिर संसार से आप ही मुक्त हो जाता है इंसान ...
सुंदर रचना.......
जवाब देंहटाएंमन निर्मल हो , सुंदर भाव ।
जवाब देंहटाएंगणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
मन को अलौकिक विश्राम मिलता है यहाँ आकर । हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी, हरीश जी, गोपेश जी, संगीता जी, अमृता जी, दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंनिर्मल सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअनीता जी नमस्कार...। बेहतर समझें तो इसे हमारी पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ के अगले अंक में आप प्रेषित कर सकती हैं...। ईमेल या व्हाटसऐप कीजिएगा। रचना के साथ संक्षिप्त परिचय और अपना एक फोटोग्राफ। बेहतर होगा 20 सितंबर के पहले प्रेषित कर दीजिएगा। आभार
जवाब देंहटाएंप्रकृति दर्शन, पत्रिका
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