चाह
हर चाह नश्वर की होती है
शाश्वत को नहीं चाहा जा सकता
वह आधार है चाहने वाले का
हर याचक आकाश से उपजा है
और पृथ्वी की याचना करता है
पृथ्वियां बनती-बिगड़ती हैं
आकाश सदा एक सा है
याचक नहीं जानता खुद का स्रोत
वह अंधकार में टटोलता है
प्रकाश का नहीं उसे बोध
पृथ्वी घूम रही है
इसका भी नहीं प्रबोध !
प्रेम
प्रेम की डोर
जो हमें बांधती है
एक दूजे से
टूटने न पाए
यही आधार है
प्रेम पंख देता है
उड़ने को तो सारा आकाश है
विश्वास की आंच में
इसे पकना होता है
और समर्पण की छाँव में
पलना होता है
प्रेम की डोर बांधे रहे परिवार
समाज और राष्ट्रों को
तभी जीवन का फूल महकता है !
प्रेम के लिए विश्वास ज़रूरी । सटीक लेखन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन दी चाह और प्रेम.. वाह!👌
जवाब देंहटाएंबस हृदयंगम करने का भाव प्रबल है । तत्पश्चात् मौन ....
जवाब देंहटाएंअति सुंदर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंआपके विचारों का पवित्र संप्रेक्षण हर विषय को नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है।
सादर।
प्रेम सिर्फ देना जानता है। हां, याचना मोहपाश जैसी है। प्रेम आत्मा को विस्तार देती है। मुक्त करती है। दोनों रचना बेहद सुंदर।
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का हृदय से स्वागत व आभार !
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