छुए जाता है पवन ज्यों
ज़िंदगी पल-पल गुजरती
रूप निज हर क्षण बदलती,
जैसे मिले, स्वीकार लें
देकर प्रथम, अधिकार लें !
व्यर्थ ही हम जूझते हैं
बह चलें सँग धार के यदि,
ऊष्मा भाव की खिल के
मुक्त होगी निज व उनकी !
चार दिन का साथ है यह
क्यों यहाँ ख़ेमे लगाएँ,
छुए जाता है पवन ज्यों
इस जहाँ से गुजर जाएँ !
चार दिन का साथ है यह
जवाब देंहटाएंक्यों यहाँ ख़ेमे लगाएँ,
छुए जाता है पवन ज्यों
इस जहाँ से गुजर जाएँ !
काश इतना निःस्पृहः राह पाएँ ।।
बहुत खूबसूरत रचना ।
मन में यह भाव जगे, शेष सब हो ही जाता है, स्वागत व आभार!
हटाएंरह *
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09.06.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4456 में दिया जाएगा| मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 9 जून 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाह! निर्लिप्त निर्विकार।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
बहुत बहुत आभार कुसुम जी!
जवाब देंहटाएंजीवन के सत्य का उच्चारण!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रतिक्रिया! स्वागत व आभार!
हटाएंवाह स्वीकारना है सहज भाव से !!बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंइस अनुपम स्वीकार भाव के लिए स्वागत व आभार अनुपमा जी!
हटाएंचार दिन का साथ है यह
जवाब देंहटाएंक्यों यहाँ ख़ेमे लगाएँ,
छुए जाता है पवन ज्यों
इस जहाँ से गुजर जाएँ !
सचमुच, व्यर्थ ही हम जूझते हैं!!!
सुंदर प्रतिक्रिया हेतु स्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंबहुत मोहक कविता
जवाब देंहटाएंजीवन निर्लिप्त हो सके तो जीवन को आधार मिल जाता है ...
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने ।
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