भेद - अभेद
यह चाह कि कोई देखे
फूल को खिलने नहीं देगी
वह तो अच्छा है कि
किसी फूल को यह चाह नहीं होती
बड़ा फ़ासला है तेरे मेरे बीच
इसी चाह के कारण
वरना यह मुहब्बत कब की
परवान चढ़ गयी होती
पलकें उठा के देखते हैं वह
नज़रें किसी की टिकी हैं या नहीं
अपनी सीरत पे यक़ीन नहीं आता
हसीनों को भी
ज़िंदगी जैसी भी है
खूबसूरत है
लाइक्स की चाह ने इसे
क्या से क्या न बना दिया
देखने वाला भी वही
देखा गया भी वही
क्यों भेद की दीवार कोई
बीच में उठा गया !
लाइक्स की चाह ने क्या से क्या बना दिया ....बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार!
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 17 जून 2022 को 'कहना चाहती हूँ कि मुझे जीवन ने खुश होना नहीं सिखाया' (चर्चा अंक 4464) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!
वाह!वाह!गज़ब कहा दी 👌
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी!
हटाएंसटीक!! श्र्लाघ्य।
जवाब देंहटाएंचिंतन परक।
सुस्वागतम कुसुम जी!
हटाएंबहुत खूब..........
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएं