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बुधवार, सितंबर 7

कविता

कविता 

कविता प्रसाद है 

उसी तरह जैसे आनंद, शांति और प्रेम !

जो एक ही स्रोत से आते हैं 

जब एकटक प्रतीक्षा में रत हों नयन 

तो अदृश्य में होने लगती है हलन-चलन 

और फलीभूत होती है प्रतीक्षा 

जीवन सरल हो 

व्यर्थ के तामझाम से मुक्त 

उस नदी की तरह नहीं 

जो तट तोड़कर बह गयी है अनियंत्रित 

चारों ओर 

ना ही बेतरतीब बहती हवा की मानिंद 

जो उड़ाती चलती है हरेक शै को

 जो उसके दायरे में आ जाती है 

जब लक्ष्य खो जाता है 

तब रास्ते भी ओझल हो जाते हैं 

जोड़े रहती है हर मंज़िल 

अपने साथ मार्गों को 

जो राही को ही नज़र आते हैं 

 बंट जाता है जब मन 

तितर-बितर हो गये मेघों की तरह  

  कुंद हो जाती है धार मेधा की 

लेंस से निकली किरणों की तरह 

एकीभूत हुई चेतना  स्रोत है सृजन का

गोमुख से ही झरा करती है गंगा 

जहाँ नहीं कोई आडम्बर नहीं कोई चाह 

नहीं प्रदर्शन अपनी विशालता का 

वह हिमालय का प्रसाद है 

जो नितांत नीरवता में बरस जाता है !