सोमवार, अक्तूबर 18

लेकिन सच है पार शब्द के


लेकिन सच है पार शब्द के


कुदरत अपने गहन मौन में

निशदिन उसकी खबर दे रही,

सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 

गुपचुप वन की डगर कह रही ! 


पल में नभ पर बादल छाते

गरज-गरज कर कुछ कह जाते

पानी की बौछारें भी तो

पाकर कितने मन खिल जाते !


जो भी कुछ जग दे सकता है

शब्दों में ही घटता है वह,

लेकिन सच है पार शब्द के

जो निशब्द में ही मिलता है !


‘सावधान’ का बोर्ड लगाये

हर कोई बैठा है घर में,

मिलना फिर कैसे सम्भव हो

लौट गया वह तो बाहर से !


या फिर चौकीदार है बुद्धि

मालिक से मिलने ना देती,

ऊसर-ऊसर ही रह जाता

अंतर को खिलने ना देती !


प्राणों का सहयोग चाहिए

भीतर सखा  प्रवेश पा सके,

सच को जो भी पाना चाहे

मुक्त गगन सा गीत गा सके !


9 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-10-21) को "/"तुम पंखुरिया फैलाओ तो(चर्चा अंक 4222) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. कुदरत अपने गहन मौन में
    निशदिन उसकी खबर दे रही,
    सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी
    गुपचुप वन की डगर कह रही !
    बहुत ही सुंदर रचना

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  3. बहुत अच्छी कविता है यह अनीता जी। बुद्धि तो सचमुच चौकीदार ही होती है। उसका नियंत्रण हृदय पर कभी नहीं होने देना चाहिए। प्राणों का सहयोग चाहिए, भीतर सखा प्रवेश पा सके,
    सच को जो भी पाना चाहे, मुक्त गगन सा गीत गा सके। मनुष्य को अपना व्यक्तित्व ऐसे ही सांचे में ढालना चाहिए।

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    1. कविता को इतनी गहराई से महसूस किया आपने, स्वागत व आभार!

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  4. लेकिन सच है पार शब्द के
    जो निशब्द में ही मिलता है
    बहुत अच्छी पंक्तियाँ!--ब्रजेंद्रनाथ

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