सोमवार, नवंबर 29

बिन बदली बरसे ज्यों सावन

बिन बदली बरसे ज्यों सावन

भीतर ही तो तुम रहते हो
खुद से दूरी क्यों सहते हो,
जल में रहकर क्यों प्यासे हो
स्वयं ही स्वयं को क्यों फांसे हो !

भीतर एक हँसी प्यारी है
खनक न जिसकी सुनी किसी ने,
भीतर एक खुला आकाश
जगमग जलता परम प्रकाश !

खुशी का एक मतवाला सोता
झर-झर झरता बहता जाता,
एक अनोखा है संसार
ईंट ईंट है जिसकी प्यार !

फूट फूट कर बहे उजाला
छलक छलक जाये ज्यों प्याला,
उमग उमग कर फैले सुरभि
दहक दहक जले अंगारा !

ऐसे उसकी स्मृति झलके
तारों भरा नीला आकाश,
बिन बदली बरसे ज्यों सावन
बिन दिनकर होता प्रकाश !

अनिता निहालानी
२९ नवम्बर २०१०





14 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे उसकी स्मृति झलके
    तारों भरा नीला आकाश,
    बिन बदली बरसे ज्यों सावन
    बिन दिनकर होता प्रकाश !


    मानोहारी बिम्ब हैं...अच्छा लगा इसे गुनना

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  2. भीतर ही तो तुम रहते हो
    खुद से दूरी क्यों सहते हो,

    बहुत ही सुन्‍दर पंक्तियां ....।

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  3. jaise nai konplen futti hain aur ek anokha ehsaas seti hain , wiaisi hi lagi ye rachna

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  4. अनीता जी,

    बहुत सुन्दर कविता....ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं-

    "भीतर ही तो तुम रहते हो
    खुद से दूरी क्यों सहते हो,
    जल में रहकर क्यों प्यासे हो
    स्वयं ही स्वयं को क्यों फांसे हो !"

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  5. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी इस रचना का लिंक मंगलवार 30 -11-2010
    को दिया गया है .
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

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  6. भीतर ही तो तुम रहते हो
    खुद से दूरी क्यों सहते हो,
    जल में रहकर क्यों प्यासे हो
    स्वयं ही स्वयं को क्यों फांसे हो

    अच्छा लेखन है आपका

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  7. भीतर एक हँसी प्यारी है
    खनक न जिसकी सुनी किसी ने,
    भीतर एक खुला आकाश
    जगमग जलता परम प्रकाश !
    बहुत सुंदर ..शुक्रिया
    चलते -चलते पर आपका स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  8. आदरणीया अनिता निहालानी जी
    प्रणाम !

    कितना सुंदर गीत सृजित किया है आपने !
    भीतर एक खुला आकाश !
    जगमग जलता परम प्रकाश !

    वाह वाऽऽह !
    ( मुझे अपनी कई पुरानी गीत रचनाएं स्मरण हो आईं … कभी पोस्ट पर लगाऊंगा … )

    फूट फूट कर बहे उजाला !
    छलक छलक जाये ज्यों प्याला !
    उमग उमग कर फैले सुरभि,
    दहक दहक जले अंगारा !


    अद्भुत ! अलौकिक ! अविस्मरणीय !

    साधुवाद एवं शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  9. सुन्दर गीत... सुन्दर भाव... आभार. (शुक्रिया चर्चामंच)

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  10. राजेन्द्र जी, आप अवश्य अपनी पुरानी गीत रचनाएँ पढ़वाएं, आप व सभी पाठकों का आभार एवं शुभकामनाएँ !

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  11. ऐसे उसकी स्मृति झलके
    तारों भरा नीला आकाश,
    बिन बदली बरसे ज्यों सावन
    बिन दिनकर होता प्रकाश !.....सुंदर रचना के लिए साधुवाद!

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  12. अति सुन्दर अभिव्यक्ति .... कुछ पल के लिए रोक ही लेतीं हैं और भीतर का परिदृश्य बदल जाता है . बधाई

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