वह आज भी प्रतीक्षा रत है...
उसने दिये हमें झरोखे ताकि
झांक सकें हम सुंदर सृष्टि
और घर लौट कर उससे कहें...
घर की सुरक्षा में
जैसे पिता देता है ताकत बच्चे को
दिन भर घूमकर आए और
शाम को विश्रांति पाए
कुछ कहे, कुछ सुने
विशुद्ध आनंद का लेन-देन हो
और पाएँ सब साहचर्य का सुख
पर हम तो बाहर गए तो
रह गए बाहर के ही होकर...
भीतर का रास्ता ही भूल गए
साधन को ही साध्य बना डाला हमने
सुख ढूँढने लगे उनमें
और यह भी नहीं पता कि जाना है कहाँ
पाना है क्या.. भूल ही गए
कि... घर भी लौटना है
वह प्रतीक्षा रत है... आज भी...