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शनिवार, जून 18

'है' एक अपार अचल कोई

'है' एक अपार अचल कोई

गर ‘है’ में टिकना आ जाए 

 ‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं, 

तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में 

‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !


‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता 

जग सागर में उठतीं लहरें, 

‘है’  एक अपार अचल कोई 

बन शीतलता देता पहरे !


‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा 

हल भी मिलता आधा आधा, 

कैसे यह बुझनी सुलझेगी 

जब तक न बने उर यह राधा !