'है' एक अपार अचल कोई
गर ‘है’ में टिकना आ जाए
‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं,
तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में
‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !
‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता
जग सागर में उठतीं लहरें,
‘है’ एक अपार अचल कोई
बन शीतलता देता पहरे !
‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा
हल भी मिलता आधा आधा,
कैसे यह बुझनी सुलझेगी
जब तक न बने उर यह राधा !