शनिवार, मार्च 29

पल-पल बरसे वह चाहत है

पल-पल बरसे वह चाहत है


हर फूल यहाँ जो खिलता है 

हर गीत उसी की नेमत है, 

यदि रोके ना कोई रस्ता 

पल-पल बरसे वह चाहत है !


रंगों के पीछे छिपा हुआ 

शब्दों का स्रोत वही तो है, 

भावों की भाषा पढ़ सकता 

नीरवता मौन वही तो है !


महिमावान नहीं वह केवल 

माधुर्य से ओतप्रोत है, 

करुणावान नहीं दिल उसका 

अतिशय स्नेह से युक्त भी है !


छाया बन संग-संग डोले 

धरा वही आकाश भी बना, 

राज छुपाना जितना चाहे 

 रहा कहाँ कोई राज छिपा !


गुरुवार, मार्च 27

एक तीर्थयात्रा

एक अविस्मरणीय तीर्थयात्रा


६ फ़रवरी

बैंगलुरु से दिल्ली आए हमें चार-पाँच दिन हो गये हैं। कल हमें अयोध्या जाना है।लगभग चार दशक पूर्व भी एक बार हम अयोध्या आये थे, पर उस समय वहाँ राम मंदिर नहीं था। बाबरी मस्जिद पर पुलिस का पहरा था और भगवान राम की प्रतिमा संभवत: एक चबूतरे पर रखी हुई थी।इतिहास में पढ़ा था, राम मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इसका ज़िक्र किया है। मुस्लिम अक्रमणकारियों ने इसे कई बार तोड़ा, और बार-बार इसे बनाया जाता रहा। पाँच सौ साल पहले बाबर काल में इसे तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। अयोध्या में बने राम मंदिर को देखने की आकांक्षा पिछले वर्ष से मन में बलवती हो रही थी।


७ फ़रवरी 

दिल्ली से अयोध्या की छोटी सी यात्रा सुखद रही। ऑडिबल में जे कृष्णामूर्ति को सुनते हुए एक सवा घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। अयोध्या हवाई अड्डे का स्वागत कक्ष सुंदर चित्रों से सजाया गया है। भगवान राम के जीवन से जुड़े रंगीन दृश्यों से सजी हुई दीवारों पर से दृष्टि हटाये नहीं हट रही थी। छोटी ननद और ननदोई जी आधा घंटा पहले ही ड्राइवर शिवम् के साथ बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने अयोध्या के ‘पार्क इन रेडिसन’ होटल में सामान रखा और कुछ ही देर में तैयार होकर अयोध्या दर्शन के लिए निकल पड़े। राम मंदिर के दर्शनों के लिए सभी के मन में गहन उत्सुकता थी। 


दोपहर ढाई बजे हम कार से मंदिर जाने के लिए निकले। मंदिर क्षेत्र आरंभ होने से काफ़ी पहले ही एक बैरिकेड लगा दिया गया था, जिस पर सभी बड़े वाहनों को रोका जा रहा था। केवल ई रिक्शा या दुपहिया वाहन आगे जा सकते थे, हमने एक रिक्शा लिया पर उसने भी एक निश्चित स्थान पर ले जाकर छोड़ दिया। उसके आगे हम लोगों के एक बड़े समूह के साथ पैदल ही आगे बढ़ने लगे। कई गलियों को पार करते हुए अंततः हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से मुख्य मंदिर में प्रवेश मिलता है। वीआइपी पास धारकों को अन्य छोटे रास्तों से ले जाया जा रहा था। अंदर गये तो भीड़ कई गुणा अधिक थी। हम चार लोगों के समूह में से एक ने आगे जाने के मोह का संवरण किया और सभी के मोबाइल फ़ोन व जूते आदि लेकर वहीं रुकना ठीक समझा। लॉकर की सुविधा तो थी पर वहाँ बहुत लंबी लंबी लाइनें लगी थीं, जिनमें खड़े रहकर हम समय नष्ट नहीं करना चाहते थे। पंक्तियों में लोग बड़े अनुशासन से आगे बढ़ रहे थे। कहीं-कहीं पर रेलिंग संकरी थी, जिसमें से एक पंक्ति में होकर ही आगे बढ़ा जा सकता था कहीं-कहीं पर कुछ चौड़ी, जिनमें दो पंक्तियों में लोग जय श्रीराम के नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। अचानक थोड़ा सा रास्ता खुला आ जाता, जिसमें सारी भीड़ एक साथ हो जाती, पुन: रेलिंग और व्यवस्था, ऐसे ही कई बार होता रहा कि मुख्य मंदिर की पहली सीढ़ियों के पास हम लोग पहुँचे। लोगों की ऊर्जा देखते ही बनती थी। मंदिर की सीढ़ियों को छूकर मस्तक से लगाते हुए लोगों का हुजूम आगे बढ़ने लगा। सीढ़ियाँ ख़त्म हुईं तो कुछ दूर रास्ता समतल था, फिर से सीढ़ियाँ चढ़नी थीं, अंततः हम मुख्य कक्ष के सामने से गुजरे, मात्र कुछ पलों के लिए रामलला की छवि के दर्शन किए कि हमने आगे बढ़ने के लिए कह दिया गया, वापसी की यात्रा भी वैसी ही थी। लगभग चालीस मिनट तक मंदिर से बाहर निकले तो फिर वापस जाने के लिए ई रिक्शा लेनी पड़ी, जिसने अयोध्या रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया, वहाँ से एक अन्य रिक्शा लेकर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कार पार्क की गई थी। सूर्यास्त होने को था जब हम कार में बैठे। रामलला के दर्शन के लिए लंबी-लंबी पक्तियों में दो-ढाई घंटों तक चलने के बाद पैरों में हल्की जकड़न महसूस हो रही थी। वापसी में हम ‘मधुर मिलन’ रेस्तराँ  में रात्रि भोजन करके  लौटे थे। मन में राम मंदिर की यात्रा के इतने सारे दृश्य भरे हुए थे कि देर तक नींद नहीं आयी। टीवी पर जिस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा होते हुए देखा था, उसे साक्षात देखना अति सुंदर अनुभव रहा। यह भी ज्ञात हुआ कि मंदिर को पूरा होने में अभी काफ़ी समय लगेगा। 


८ फ़रवरी 

सुबह-सुबह सूर्योदय देखने के लिए हम सरयू घाट जाने के लिए निकले, पर घाट से चार किमी पहले ही ट्रैफ़िक जाम शुरू हो गया, कुछ ही आगे बैरिकेड भी लगा था। इसलिए हम गोंडा जाने वाले हाई वे पर बने पुल से सरयू में सूर्योदय के दर्शन कर वापस आ गये। रास्ते में प्रसिद्ध रामायण होटल भी दिखा। वापस लौटे तो नाश्ते का समय हो गया था। स्वादिष्ट व पौष्टिक नाश्ते के बाद  होटल के सामने स्थित एडवेंचर पार्क में टहलने गये। जहाँ कई आकर्षक स्थान थे। बंदरों की एक टोली झील से पानी पी रही थी। दोपहर बारह बजे हम डोंगरा मंदिर देखने गये। जो अयोध्या कैंट में स्थित है। मंदिर विशाल और स्वच्छ है। बड़े से मुख्य कक्ष में सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं, बाहर फूलों के उद्यान हैं, सुंदर रास्ते और उनके मध्य फ़व्वारे भी हैं। एक पुजारी जी वहाँ बैठे थे और लोगों को प्रसाद दे रहे थे, वहाँ से निकल कर हम गुप्तार घाट देखने गये, जहां भगवान श्रीराम ने जल समाधि ली थी। घाट पर काफ़ी रौनक़ थी और सैकड़ों नावें खड़ी थीं। एक नाविक से हमने सरयू घाट ले जाने के लिए कहा। मोटर बोट में बैठकर लगभग एक घंटे में सरयू घाट पहुँच गये, रास्ते में तटों पर कई सुंदर स्थान देखे, कई छोटे-बड़े टापुओं पर श्वेत व श्याम बड़े-छोटे जलीय पक्षी देखे और उनकी तस्वीरें उतारीं। घाट पर लोगों का विशाल हुजूम था, इसलिए हम दूर से ही घाट देखकर लौट पड़े, वापसी में एक कैंप में कुछ देर के लिए रुके। वहाँ रणजीत नामके एक व्यक्ति ने जो अयोध्या गोकैंप चलता है,  चाय पिलायी और नमकीन खिलायी। वापस गुप्तार घाट पहुँचते-पहुँचते शाम के पाँच बज गये थे। घाट पर कुछ बालिकाएँ भुना भुट्टा और कुछ व्यक्ति लेमन टी बेच रहे थे। हमने दोनों का ही आनंद लिया। एक गौ माता हमसे भुट्टा माँगने लगी, उसे अपने हाथ से खिलाकर बहुत आनंद आया। सूर्यास्त होने ही वाला था, हमने सरयू के जल में डूबते सूर्य के सुंदर चित्र उतारे और वापस शहर लौट आये। कनक रेस्तराँ में रात्रि भोजन किया और अब वापस अपने होटल लौट आये हैं। आज दिल्ली में बीजेपी पूरे २७ वर्षों के बाद लौटी है अब एलजी और सीएम का झगड़ा समाप्त होगा और दिल्ली के हालात बदलेंगे। कल सुबह हमें प्रयागराज में चल रहे कुंभ में भाग लेने जाना है। 


९ फ़रवरी 

सुबह सवा आठ बजे अयोध्या के रेडिसन होटल से निकले। शिवम् हमारी गाड़ी इनोवा क्रिस्टा के ड्राइवर ने कहा, सुल्तानपुर के पहले बहुत बड़ा जाम लगा है। हम लोग उस स्थान से काफ़ी पहले ही गाँव के रास्तों की तरफ़ मुड़  गये और २ घंटे में सुल्तानपुर के आगे जाकर निकले। वहाँ से यात्रा ठीक-ठाक चलती रही, किंतु प्रयागराज के अरैल घाट पर जाने से पहले बैरिकेड का सामना करना पड़ा। हमारी बुकिंग अरैल घाट के सेक्टर २५ में आईआरटीसी के कैंप में है। बेली कछारी पार्किंग में हज़ारों गाड़ियाँ पार्क की हुई थीं, जिन्हें आगे जाने नहीं दिया जा रहा था। हमारी गाड़ी भी वहीं खड़ी हो गयी। सुनने में आया, शायद रात्रि आठ बजे तक बैरिकेड खोल दिया जाएगा। एक पुलिसवाले ने बताया अब स्टील पुल से ही आगे जया जा सकता है। तभी ननद की एक सहेली का फ़ोन आया तो हमने चैन की सांस ली, वह उस स्थान से मात्र डेढ़ किमी पर रहती है। अभी साढ़े तीन ही बजे थे। दो बाइकर्स हमें वहाँ ले जाने के लिए तैयार हो गये। इतनी भीड़ में जब सब तरफ़ जाम लगा है, ऐसे में केवल बाइक से ही किसी गंतव्य तक जल्दी पहुँचा जा सकता है। उनमें से एक का नाम अभिषेक था, उसने कहा, पिता हाईकोर्ट में काम करते हैं। वह दो दिन पहले ही मुंबई से आया था, वह फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़ा है, असिस्टेंट डायरेक्टर का काम करता है। वह अपना जेबख़र्च निकालने के लिए यह काम कर रहा है। उसने बहुत सावधानी से गाड़ी चलायी  और चार बजे हमें कलश चौराहे के निकट स्थित गंतव्य तक पहुँचा दिया।जहाँ आश्रय के साथ-साथ हमें स्वादिष्ट गर्म भोजन भी मिला। पकौड़े की सब्ज़ी, पनीर, दाल, सूखी सब्जी, गाजर का हलवा और मिठाई आदि सखी ने बहुत स्नेह से परोसी। शाम को छह बजे अभिषेक का फ़ोन आया, कि एक रास्ता खोला गया है जिससे होकर अब ड्राइवर वहाँ आ सकता है। एक बार फिर हमारी यात्रा आरम्भ हो गई। इस बार हमें शहर से गुजरते हुए अरैल घाट तक जाना था। लोगों के अनेक समूह हर तरफ़ नज़र आ रहे थे। छोटे-बड़े, व्यस्क, वृद्ध, महिला-पुरुष सभी कुछ न कुछ सामान लिए इधर से उधर जा रहे थे, मंज़िल सबकी एक ही थी, संगम। सुना था हज़ारों लोग पैदल ही कुंभ यात्रा पर आ रहे हैं, अब देख भी लिया। हमारी गाड़ी किसी तरह रेंगती हुई आगे बढ़ती रही। १७ किमी की यह यात्रा सवा घंटे में पूरी करके हमने कुंभ मेला क्षेत्र में प्रवेश किया। वहाँ के दृश्य इतने मनमोहक थे कि सभी दिन भर की थकान भूल गये। रोशनियों का एक समंदर  वहाँ  झिलमिला रहा  था। सड़क के दोनों ओर बड़े-बड़े स्वागत द्वार, अनुपम झांकियाँ और सजी हुई दुकानें लगी थीं। गंगा में जलती हुई प्रकाश पंक्तियों का प्रतिबिंब झलक रहा था। अंततः हम सेक्टर २५ के अपने विला में पहुँच गये जो एक बड़े अहाते में बना है। हमारा कक्ष काफ़ी बड़ा है। बड़ा सा पलंग, सोफा सेट, कार्पेट, टीवी, सटा हुआ स्नान घर व एक कक्ष सामान रखने के लिए भी। सुबह दो घंटे गरम पानी भी आता है। सामान रखकर हम भोजनालय गये, लंच देर से होने के कारण सभी ने थोड़ा बहुत भोजन ग्रहण किया और दस बजे सोने चले गये। कुछ देर तक पड़ोस वाले टेंट से आवाज़ें आती रहीं, फिर सब शांत हो गया। हम कल सुबह कुंभ स्नान के लिए जाने वाले हैं। 


१० फ़रवरी 

सुबह ठंड बहुत थी। ५ बजे टेंट का दरवाज़ा खोलकर देखा तो घना कोहरा और अंधेरा दिखा। कुछ देर ध्यान किया फिर ऑडिबल पर संत वचन सुने। एक घंटे बाद मोबाइल पर सुबह के समाचार सुनकर सुबह की शुरुआत की। बिजली की एक छोटी रॉड पतिदेव के बैग में रहती है, उससे पीने का पानी गरम किया। पौने सात बजे पुन: बाहर निकली तो पूर्व में हल्की लालिमा दिखी। कुछ देर बाद ही सूर्यदेव का रक्तिम गोलाकार क्षितिज पर दिखायी दिया।अनुपम दृश्य था कुछ चित्र उतारे, एक दो काली चिड़ियाँ भी वहाँ फुदक रही थीं। नहा-धोकर आठ बजे हम प्रातः राश के लिए गये। कुछ देर विस्तृत अहाते में घूमकर भिन्न-भिन्न आवासों का निरीक्षण किया। दस बजे वस्त्र आदि लेकर हम संगम के लिए रवाना हुए। विचार आया, पहले निकट बहती गंगा माँ के दर्शन कर लें फिर आठ किमी दूर संगम जाने का प्रयत्न करेंगे। मार्ग में एक अघोरी बाबा के दर्शन हुए, जिन्होंने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।नदी के तट तक पहुँचे तो वहाँ अनेक लोग दिखे, कुछ स्नान भी कर रहे थे। हमने भी वहीं डुबकी लगाने का निश्चय किया, आरंभ में जल शीतल लगा, सारे तन में सिहरन भर गई, किंतु कुछ देर में अभ्यस्त हो जाने के कारण बहुत आनंद आया। एक नाविक वहाँ नाव में बैठा था, जिसे निगरानी रखने के लिए कहा गया था, कि कोई भी व्यक्ति निर्धारित सीमा के आगे स्नान के लिए न जाये। हमने उसे मध्य धारा से बोतल में जल भर लाने को कहा, जो उसने स्वीकार कर लिया।तट पर पंडित जी भी तिलक लगाने के लिए अपना साजो-सामान लेकर बैठे थे।सभी ने तिलक लगवाया। गंगा जल में स्नान के बाद तन-मन में जैसे एक स्फूर्ति छा गई थी।सभी उत्साहित थे। टीवी पर देखा था कि प्रयागराज से पहले कई किलोमीटर तक जाम हो गया है। हम अरैल घाट तक जाने के लिए निकले पर भीड़ और तेज गर्मी देखकर वापस टेंट में आ गये। 


शाम को पाँच बजे ड्राइवर हमें अरैल घाट से काफ़ी पहले छोड़ गया, उसके आगे चार पहिया वाहनों का जाना मना है। लोगों के अपार समूह में पैदल चलते हुए आस-पास के भक्ति पूर्ण वातावरण का आनंद लेते हुए हम आगे बढ़ते रहे।सड़क किनारे कुछ दूरी पर आठ-दस मोरों को विचरते देखना एक सुंदर अनुभव था। महर्षि महेश योगी का आश्रम दूर से ही आकर्षित कर रहा था। उसके विशाल बगीचों से होते हुए हम सीढ़ियाँ चढ़ कर मुख्य कक्ष में पहुँचे। वहाँ महर्षि के चित्रों के साथ साथ एक शिवलिंग की स्थापना की हुई थी। उनकी ध्यान विधि के बारे में भी समझाया गया था। काफ़ी ऊँचाई पर बने इस कक्ष से बाहर आते ही दूर तक फैली रोशनियों के दर्शन हुए। कुछ देर वहाँ रहकर हम पुन: सड़क पर लौट आये, मुरारी बापू, की कथा का एक बड़ा सा पोस्टर दूर से ही आकर्षित कर रहा था। कितने ही संतों ने अपने अस्थायी आश्रम इस कुंभ स्थल पर बनाये हैं। अंततः हम घाट पर पहुँच गये, जहां परमार्थ आश्रम के संत श्री द्वारा आरती करवायी जा रही थी, गंगा की लहरों में रोशनी की पंक्तियाँ झलक रही थीं। ढोल, मंजीरे के साथ आरती के स्वर गूंज रहे थे और केसरिया वस्त्र पहने लोगों का एक बड़ा हुजूम चला आ रहा था। हम कुछ देर तक वहाँ रहकर उस सुंदर वातावरण का अंग बने खड़े रहे फिर वापसी की यात्रा आरम्भ की। गाड़ियों के हॉर्न के मध्य एक एंबुलेस की आवाज़ भी आ रही थी, शायद किसी यात्री को चिकित्सा की आवश्यकता थी। एक चने-मुरमुरे वाला ठेले पर अंगीठी जलाये चने भून रहा था, कुछ लोग वहाँ खड़े थे, हमने भी ताजे भुने अन्न का स्वाद लिया और धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। किसी को कोई जल्दी नहीं थी, लोग बहुत इत्मीनान से आजा रहे थे, इस रौनक़ मेले का आनंद लेते हुए हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ ड्राइवर को बुलाया जा सकता था। कल सुबह साढ़े आठ बजे हमें हवाई अड्डे के लिए निकलना है। 


११ फ़रवरी 

आज हम घर लौट आये हैं। बैंगलुरु वापसी की यात्रा बहुत लंबी रही। सुबह साढ़े आठ बजे टेंट सिटी से निकले और ट्रैफ़िक जाम का सामना करते-करते तीन घंटे में हवाई अड्डे पहुँचे। फ़्लाइट दोपहर बाद तीन बजे की थी, रात के नौ बजे घर पहुँचे। वर्षों से जिस कुंभ यात्रा का सपना मन में संजो रखा था, वह इस महाकुंभ में पूर्ण हो गया, इसका अति संतोष है। 

            


मंगलवार, मार्च 25

जो है


जो है 

जो है 

उसे देख नहीं सकते 

वह देखने वाला है !


जो दिखता है 

वह है नहीं 

क्योंकि वह 

पल-पल बदल रहा है !


जो है 

वह सदा है 

पर अनजाना ही 

रह जाता है !


जो नहीं है 

उसी को पकड़ने में 

मन ऊर्जा गँवाता है !


जीवन इसी विरोधाभास 

का दूसरा नाम है !


जो है 

उसी को कहते राम हैं 

जिसमें ठहर कर 

मन पाता विश्राम है !


रविवार, मार्च 23

भीतर कोई राह देखता

भीतर कोई राह देखता 


ऊपर वाला खुला राज है

फिर भी राज न खुलने वाला, 

देखा ! कैसा चमत्कार है 

या फिर कोई गड़बड़ झाला !


कण-कण में वह व्याप रहा है 

छिपा हुआ सा फिर भी लगता, 

श्वास-श्वास में वास उसी का 

दर्शन हित मीलों मनु चलता !


ढूँढ रहा जो गर थम जाये

जाये ठहर चाहने वाला,

भीतर कोई राह देखता 

 जग जाता गर सोने वाला !


देख लिया ? नहीं, देख रहा है !

इस पल के बाहर न मिलता, 

पल-पल सृष्टि नवल हो रही 

नित्य ही सब कुछ रचा जा रहा !


राज अनोखा जाना जिसने

वही ठगा सा खड़ा रह गया, 

ख़ुद को देखे या अनंत को 

भेद न कोई बड़ा रह गया !


मंगलवार, मार्च 18

भेद न उसका जाना जाता

भेद न उसका जाना जाता
लगता है ख़ुद नाच रहे हैं 
पर सब यहाँ नचाये जाते, 
भ्रम ही है  सब बोल रहे हैं 
कोई बुलवाता भीतर से !
 
शब्द निकलते अनचाहे ही
अनजाने ही भाव उमड़ते, 
 कोई और जगाने वाला
कर्म यहाँ करवाये जाते !

जब तक कोई हो न बाँसुरी 
तब तक काटा-छीला जाता, 
 जब तक शून्य नहीं हो जाता 
तब तक मनस तराशा जाता !

कर्म कहें या दैव उसे हम 
उसके हाथों की कठपुतली, 
कुछ भी नहीं नियंत्रण में है 
  चालबाज़ियाँ सभी व्यर्थ ही !

 पल में हुआ धूल धुसरित वह 
अभी गगन पर जिसे बिठाया, 
ज्ञानी-ध्यानी माना मन को
अज्ञानी सा कभी दिखाया !
 
मेधा कितना ज़ोर लगाये 
भेद न उसका जाना जाता, 
‘मैं’ को तजे बिना जीवन में 
सच का सान्निध्य नहीं  मिलता !


रविवार, मार्च 16

प, फ, ब, भ, म

प, फ, ब, भ, म


प-वर्ग में आकर बसते हैं 

सारे रिश्ते जो भाते हैं, 

परम परमात्मा, भगवान भी 

पंचम सुर में ही गाते हैं !


प औ’ म के मध्यांतर में इक 

रिश्तों का संसार बसा है, 

प से पिताजी और म से माँ 

इनसे ही परिवार बना है !


प से पत्नी, प्रियतम भी प से 

फ से फूफी-फूफा कहाते, 

ब बना बहना, बिटिया, बेटी 

भ भाई का भाभी भी भ से !


मामा-मामी, मौसा-मासी 

माँ सम  ममता सदा लुटाते, 

भ से भार्या, भगिनी भी भ से 

ब से बुआ व बहू बन जाते !


शुक्रवार, मार्च 14

जीवन इक मधुरिम उत्सव है

होली की शुभकामनाएँ 


फागुन मास भरे उल्लास 

पूनम का चाँद जगाये याद, 

उड़ते रंग भरते उमंग 

अबीर, गुलाल, मिटायें मलाल !


मीठी गुझिया भुजिया तीखी

लपट अगन की लौ लगन की, 

छाया वसंत हुआ शीत अंत 

मन मोर थिरक भरे एक ललक !


यह राग-रंग धुन मस्ती की 

बस याद दिलाने ही आती, 

जीवन इक मधुरिम उत्सव है 

कुदरत की हर शै यह गाती !


सोमवार, मार्च 10

आया मार्च

आया मार्च 


आया मार्च ! हरी आभा ले

वृक्षों ने नव पल्लव धारे, 

धानी चमकीले रंगों से 

तरुवर ने निज गात सँवारे !


आया मार्च ! अरुण आभा ले 

फूला पलाश वन प्रांतर में, 

चटक शोख़ रक्तिम पल्लव से 

डाली-डाली सजी वृक्ष में !


आया मार्च ! मौसम रंगीन 

फागुन की आहट कण-कण में, 

बैंगनी फूलों वाला पेड़ 

बस जाता मन में नयनों से !


आया मार्च ! महक अमराई 

छोटी-छोटी अमियाँ फूटीं, 

भँवरे डोला करें बौर पर 

दूर नहीं रस भरे आम भी !


आया मार्च ! कहीं बढ़ा  ताप 

कहीं अभी भी शीत व्यापता, 

कुदरत  की लीला पर मानव 

चकित हुआ सा रहे भाँपता !



शुक्रवार, मार्च 7

इतना ही तो कृत्य शेष है

इतना ही तो कृत्य शेष है


‘मैं’ बनकर जो मुझमें बसता 

‘तू’ बनकर तुझमें वह सजता, 

मेघा बन नभ में रहता जो, 

धारा बन नदिया में बहता !


चुन शब्दों को गीत बनाना 

अपनी धुन में उसे बिठाना, 

इतना ही तो कृत्य शेष है 

सुनना तुमको और सुनाना !


अब न कोई सीमा रोके 

नील गगन में किया ठिकाना, 

खुला द्वार, है खुला झरोखा 

सहज हो रहा आना जाना !


बुधवार, मार्च 5

हमको हमसे मिलाये जाता है


 हमको हमसे मिलाये जाता है 

हर शुबहे को गिराए जाता है 

वह हर इक पल उठाये जाता है 


खुदी को सौंप कर जिस घड़ी देखा 

वह ख़ुद जैसा बनाये जाता है 


न दूरी न कोई भेद है उससे 

 हमको हमसे मिलाये जाता है 


 चाह जब घेरने लगती हृदय को 

 भँवर से दूर छुड़ाए जाता है 


घेरा हवा औ' धूप की मानिंद

ज्यों आँचल में छुपाये जाता है 


 हो रहो उसके महफ़ूज़ रहोगे 

 सबक़ यह रोज़ सिखाये जाता है  


रविवार, मार्च 2

अब बहुत हुआ लुकना-छिपना


अब बहुत हुआ लुकना-छिपना

कब अपना घूंघट खोलेगा 
कब हमसे भी तू बोलेगा, 
राधा का तू मीरा का भी 
कब अपने सँग भी डोलेगा! 

अपना राज छिपा क्यों रखता 
क्यों रस तेरा मन ना चखता, 
जब तू ही तू है सभी जगह 
इन नयनों को क्यों ना दिखता! 

अब और नहीं धीरज बँधता
मुँह मोड़ भला क्यों तू हँसता, 
अब बहुत हुआ लुकना-छिपना  
तुझ बिन ना अब यह दिल रमता! 

जो तू है, सो मैं हूँ, सच है 
पर मुझको अपनी खबर कहाँ, 
अब तू ही तू दिखता हर सूं 
जाती है अपनी नजर जहाँ ! 

यह कैसा खेल चला आता 
तू झलक दिखा छुप जाता है, 
पलकों में बंद करूं कैसे 
रह-रह कर बस छल जाता है !