रामायण - मिथक से परे इतिहास की झलक
भाग - ४
आज सुबह हम जल्दी उठ गये थे, साढ़े पाँच बजे समुद्र तट पर सूर्योदय देखने जाना था। बादलों के कारण सूर्यदेव के दर्शन तो नहीं हुए, पर हमने समुद्र स्नान का आनंद लिया। तट पर योगासन किए और भ्रमण के साथ दौड़ भी लगायी। वृक्ष के एक तने पर बैठे हुए एक-दूसरे की तस्वीरें खींचीं।अब समूह के कुछ लोगों से परिचय बढ़ रहा है। साढ़े नौ बजे हम होटल से निकले तो पहला पड़ाव था भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को समर्पित त्रिंकोमाली का लक्ष्मी नारायण पेरूमल कोविल मंदिर, जो एक भव्य मंदिर है।यह मंदिर भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को समर्पित है और अपनी जटिल द्रविड़ वास्तुकला और आध्यात्मिक महत्व के लिए जाना जाता है। इस मंदिर में हिंदू पौराणिक कथाओं को दर्शाने वाली विस्तृत नक्काशीदार मूर्तियाँ हैं।मंदिर का वातावरण शांत और आध्यात्मिक था।इसके विशाल प्रांगण में हमने कुछ समय बिताया।
इसके बाद हम शिव का प्रसिद्ध थिरुकोनेश्वर मंदिर देखने गये, यहाँ शंकरी देवी शक्ति पीठ भी है। इस स्थान को दक्षिण कैलाश भी कहते हैं।वहाँ शिव की अति सुंदर भव्य और विशाल प्रतिमा थी। ऐसी मान्यता है कि रावण ने इसका निर्माण कराया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार पार्वती ने भवन निर्माण के लिए इस स्थान का चुनाव किया था। गृहप्रवेश की पूजा के लिए पार्वती ने रावण को आमंत्रित किया। रावण इस भव्य इमारत को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया और दक्षिणा स्वरूप इस भवन की मांग कर दी। देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण की, पर बाद में उसे अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने देवी से क्षमा मांगी तथा प्रार्थना की कि वे यह स्थान छोड़ कर न जाएँ। पार्वती शंकरी देवी के रूप में यहीं स्थिर हो गयीं। भगवान शिव उनके संग यहाँ थिरुकोनेश्वर अर्थात पर्वतों के देव के रूप में निवास करते हैं।
इसी मंदिर के निकट एक ऐसी जगह और है जिसका नाम रावण से जुड़ा है।इसे रावण वेट्टा कहते हैं ।ऐसा माना जाता है कि रावण ने अपनी तलवार से इस चट्टान को काटा था। मंदिर के पीछे एक स्थान पर लकड़ी के कई छोटे छोटे पालने लटक रहे थे।माधवानंद जी ने बताया, संतान प्राप्ति के लिए लोग यहाँ मन्नत माँगते हैं।
शंकरी देवी मंदिर थिरुकोनेश्वर मंदिर के परिसर में ही स्थित है। वह चतुर्भुजी खड़ी मुद्रा में हैं। उनके चरणों के निकट ताम्बे का दो आयामी श्री चक्र है। वहीं उनकी प्रतिमा के सामने तीन आयामी श्री चक्र खड़ा है।ऐसी मान्यता है कि सती का एक पैर यहाँ गिरा था। आदि शंकराचार्य ने अपने एक स्तोत्र में अठारह शक्ति पीठों में सर्वप्रथम इसी शक्ति पीठ का उल्लेख किया है।हमने काफ़ी समय इस मंदिर के प्रांगण में बिताया और देवी की आरती में भी भाग लिया।दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं की सुंदर आकृतियाँ बनी थीं।
कुछ आगे जाकर हमने भद्रकाली मंदिर के दर्शन भी किए, जो नगर के मध्य स्थित था। बाहर से यह किसी दक्षिण भारतीय मंदिर के समान दिखाई दे रहा था। प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करते ही कक्ष में चारों ओर तीन आयामी मूर्तियाँ दिखायी देती हैं। समूह के सभी लोग उन्हें देखकर आश्चर्य से भर गये।अनेक विचित्र आकार की मूर्तियाँ छत पर भी बनी थीं। चौखटों, दीवारों और स्तंभों पर भी रंग-बिरंगी देवी-देवताओं व प्राणियों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। यह मंदिर चोल वंश से पूर्व का है। इसका अर्थ है, मंदिर हज़ार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है।
अंत में हम कन्निया उष्ण जल-स्त्रोत देखने गये, जो प्रकृति का एक करिश्मा जान पड़ता है। वहाँ कई माताएँ अपने बच्चों को गर्म जल से स्नान करवा रही थीं। पास-पास बने कुछ सात चौकोर जल कूप थे। जिनकी गहराई अधिक नहीं थी। उनके भीतर गुनगुने से लेकर विभिन्न तापमान का जल भरा था। एक दूसरे के समीप स्थित कुल ७ चौकोर कुँए हैं जिनमें विभिन्न तापमान के गर्म जल स्त्रोत हैं। इनकी गहराई अधिक नहीं है। केवल ३ से ४ फीट हो सकती है। इन कुओं के समीप खड़े होकर भीतर झांकने पर इनके तल स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। इनके भीतर पर्यटकों ने अनेक सिक्के डाले हुए हैं।ऐसी मान्यता है कि रावण ने अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए इन जल स्रोतों को उत्पन्न किया था। यह भी कहा जाता है कि रामायण में इसका उल्लेख गोकर्ण तीर्थ के एक भाग के रूप में किया गया है। त्रिंकोमाली खाड़ी का एक अन्य नाम गोकर्ण भी है।
अभी कुछ देर पहले हम नार्थ गेट होटल पहुँचे हैं। जो जाफना में स्थित है। कई वर्षों पूर्व यहाँ गृह युद्ध चल रहा था, पर अब पूर्णत: शांति है। कल हमें एक और शक्ति पीठ नाग द्वीप देखने जाना है।
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