ग्रीष्म की एक संध्या
छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !
दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !
कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !
छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ
जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !
चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !
झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !
गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !
है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !
अनिता निहालानी
१ जून २०१०
waaah bahut sundar ji....
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