समाधि
मन के पीछे.. पीछे.. पीछे..
चलो वहाँ पर ऑंखें मींचे
जहाँ विचार न कोई उठता
भाव भी कोई नहीं उमड़ता I
जहाँ प्रकाश का फूल खिला है
सुर का भीना स्रोत मिला है
उस गह्वर में पल भर रुकना
वहीं अगोचर का हो लखना I
उठती वहीं से 'मैं' की तान
गति पाते हैं पांचों प्राण
वहीं से डलता जाल जगत में
न चाहो तो समेटो पल में I
उस ही का विस्तार हुआ है
भाव और विचार हुआ है
वही चाह न चाह कर फंसता
वही मुक्त हृदय से हँसता I
लीला रचता निज शक्ति से
खो जाता विमुख भक्ति से
कोई आकर याद दिलाता
खुद को फिर खुद में पा जाता I
पुलक वही आँखों में अश्रु
धनक वही पावों में घुंघरू
गीत वही कंठों में सरगम
प्रिय वही अंतर में प्रियतम I
अनिता निहालानी
२३ जून १०१०
मन के पीछे.. पीछे.. पीछे..
चलो वहाँ पर ऑंखें मींचे
जहाँ विचार न कोई उठता
भाव भी कोई नहीं उमड़ता I
जहाँ प्रकाश का फूल खिला है
सुर का भीना स्रोत मिला है
उस गह्वर में पल भर रुकना
वहीं अगोचर का हो लखना I
उठती वहीं से 'मैं' की तान
गति पाते हैं पांचों प्राण
वहीं से डलता जाल जगत में
न चाहो तो समेटो पल में I
उस ही का विस्तार हुआ है
भाव और विचार हुआ है
वही चाह न चाह कर फंसता
वही मुक्त हृदय से हँसता I
लीला रचता निज शक्ति से
खो जाता विमुख भक्ति से
कोई आकर याद दिलाता
खुद को फिर खुद में पा जाता I
पुलक वही आँखों में अश्रु
धनक वही पावों में घुंघरू
गीत वही कंठों में सरगम
प्रिय वही अंतर में प्रियतम I
अनिता निहालानी
२३ जून १०१०
"बहुत ही अच्छी और प्रवाहमयी रचना...."
जवाब देंहटाएंvery good.
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