मंगलवार, जून 1

ग्रीष्म की एक संध्या

ग्रीष्म की एक संध्या

छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !

छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ
जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !

चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !

झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !

अनिता निहालानी
१ जून २०१०

1 टिप्पणी: