प्रेम
प्रेम ! एक पहाड़ी नदी
जो उदगम पर उफनती, शोर मचाती
उच्च प्रपात बन छलांग लगाती
खो जाती कभी गहन कन्दराओं में !
वैसे ही सिमट जाता
प्रेम ! मन की गुफाओं में
कभी विशाल धारा सम शांत
बहता, फिर हो जाता संकरा
पर सदा बना रहता
सदानीरा सा !
अमरबेल सा बसा रहता
दिल की गहराइयों में
कभी गुप्त, प्रकट कभी
प्रेम स्वयं में अपूर्ण है,
परम से मिलने तक !
जैसे नदी सागर मिलन से पूर्व !
अनिता निहालानी
१९ नवम्बर २०१०
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंप्रेम को सुन्दर परिभाषा में बंधा है आपने....मन के तल का प्रेम जो कभी पर्वत से ऊँचा तो कभी सागर से गहरा....बहुत सुन्दर |
अनित अजी,
जवाब देंहटाएंकलम का सिपाही पर आपकी टिप्पणी का शुक्रिया...मैं आपसे काफी हद तक सहमत हूँ माफ़ी माँगना एक महान काम है ...पर माफ़ कर देना सबसे महान है|
नमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 05/03/2023 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
आदरणीया मैम, सादर प्रणाम। प्रेम की बहुत ही सुंदर और गहरी परिभाषा गढ़ती कविता। आपकी यह रचना अत्यंत सुंदर लगी। मैं ने अपनी कृतज्ञता डायरी वाले ब्लॉग पर एक लेख डाला है, कृपया आ कर अपना आशीष दीजिये। पुनः प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय अनीता जी। प्रेम की सही परिभाषा देने में कोई कहाँ सक्षम हो सका है।प्रेम प्रेम है,एक अनकही अनुभूति।जितने लोग उतने अनुभव।बहुत प्यारी रचना है जहाँ प्रेम ही प्रेम है ♥️♥️🙏
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