घर में उसको आने दो
सिर पर हाथ सदा है उसका
बड़े प्यार से सहलाता है,
दिल से उसे पुकारो तो बस
सम्मुख तत्क्षण आ जाता है !
आना भी क्या, सदा यहीं है
उसकी ओर जरा मुख मोडो,
नेह-प्रेम से भर देगा वह
दामन, उससे नाता जोड़ो !
दामन, उससे नाता जोड़ो !
इतने बड़े जहाँ का मालिक
पल-पल रहता निकट हमारे,
ओढ़ाये खुशियों की चादर
जीवन की हर घड़ी संवारे !
उसका मिलना ही मिलना है
जग सारा मिल मिल के बिछड़े
एक वही पाने के लायक
जग भी सुंदर, मिलकर उससे !
वैसे तो वह मिला हुआ है
हमने ही ना याद किया,
भीतर सूरज उगा हुआ है
हमने ही पट बंद किया !
उत्सव याद दिलाने आया
उसको ना वनवास कभी दो,
अगर दिया तो अवधि पूर्ण कर
घर में उसको आने तो दो !
अनिता निहालानी
१८ नवम्बर २०१०
वैसे तो वह मिला हुआ है
जवाब देंहटाएंहमने ही ना याद किया,
भीतर सूरज उगा हुआ है
हमने ही पट बंद किया !
बहुत सुन्दर|
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कारम्!
सच ही तो कहा है आपने...कि इस चार पल के मेले में सिर्फ़ उस ‘एक’ ही का मिलन सच्चा मिलन है, बाक़ी सब तो कुछ पल के लिए मिलकर बस स्मृतियाँ-मात्र छोड़ जाते हैं...इंसान उन्हीं स्मृतियों के लोक में गोल-गोल घूमता रह जाता है!
डिक्शन (भाषा-चयन) भी विषयानुकूल...सर्वथा सहज एवं अनारोपित! ऐसा लगा कि मानो एक सहज प्रवाह में भाव व विचार उतरते चले हों...और आप उन्हें काग़ज़ के बिछौने पर लिटाती गयीं हों...बारी-बारी! अब सत्य जो भी हो मुझे उक्तवत् ही आभास मिला...!
मेरा मानना है कि सायास लिखी गयी रचनाएँ चाहे जितनी भी श्रेष्ठ बन पड़ें, अपना वह रूप लेकर पाठकों के सम्मुख नहीं आ पातीं जो एक "Spontaneous overflow of powerful feelings" वाली रचना में दिखायी देता है। खैर...
आपकी यह संदर्भित रचना छंद का भी सम्यक् निर्वाह कर सकी..यह सुखद है! यदि एक-दो स्थानों पर लाय-भंग को अपवाद-रूप में छोड़ दिया जाए, तो आपकी हर पंक्ति छंद पर आपकी सुदृढ़ पकड़ की परिचायक है।
इस टिप्पणी को टाँकने में मेरा समय तो कुछ ज़्यादा ही खप जा रहा है, तथापि बात को अधूरा छोड़ देना बे-मानी होगा...क्योंकि आपका कवि-मन प्रमाण तो चाहेगा ही... है कि नहीं!
प्रमाण-१ :
’प्रेम से दामन भर देगा वह उससे जरा सा नाता जोड़ो!’
समाधान :
’नेह-प्रेम से भर देगा वह,दामन-
उससे नाता जोड़ो!’
(अंग्रेज़ी छंद-विधान में इसे ‘रन-ऑन-लाइन’ कहते हैं।)
प्रमाण-२
’उसका मिलना ही मिलना है जग बिछड़े यहाँ मिल मिल कर’
समाधान :
’उसका मिलना ही मिलना है, जग सारा मिल-मिलके बिछड़े’
प्रमाण एवं समाधान-३ व ४ :
अंतिम पंक्ति में प्रयुक्त ‘यदि’ की जगह ‘अगर’ कर देने से लय-दोष का निराकरण किया जा सकता है। साथ ही ‘ना’ का प्रयोग व्याकरण-सम्मत नही है...शुद्ध प्रयोग ‘न’ होता है, बशर्ते मात्रा पूरी करने का प्रछ्न्न उद्देश्य न हो।
आशा है कि आप मेरे इस समूचे श्रमपूर्ण व विनम्र उपक्रम को किसी परोपदेश या किसी चीह्ने-अचीह्ने अहम् की तुष्टि नहीं मानेगी...तथास्तु!
आदरणीय जितेन्द्र जी, मुझे आपकी टिप्पणी पढ़कर सुखद आश्चर्य हों रहा है, आपका नाम जौहरी होना चाहिए जौहर की बजाय, सचमुच एक भाव दशा में यह कविता लिखी गयी, बल्कि मेरी सभी कवितायें, यदि वे कवितायें हैं तो एक पल के आवेग में लिखी गयी हैं सप्रयास नहीं, छंद का ज्ञान कभी लिया नहीं जो शब्द सहज उतरते गए वही लिखे , लय के बारे में आपके सुझाव मुझे मान्य हैं सो मैं एडिट कर के कविता पुनः लिख रही हूँ. शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhavon se bhari kavita.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंजीतेन्द्र जी के सामने तो हम कुछ बोलने लायक नहीं बचते.....पर इस टिपण्णी के माध्यम से अपनी उपस्तिथी अवश्य दर्ज करवा रहें हैं|
इमरान जी, आप और सभी पाठक जो मेरी कवितायें पढते हैं मेरे लिये महत्वपूर्ण हैं,क्योकि सबके भीतर एक उसी का प्रकाश है, अपने तो सदा मेरी हौसला अफजाई ही की है सो आपका भी तहे दिल से शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंआद. अनीता जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कारम्!
आपकी विनम्रता को प्रणाम करता हूँ। विनम्रता के साथ-साथ आपके गुणग्राही व्यक्तित्व का भी परिचय मिला...सभी में ऐसी क्षमता नहीं होती है कि अपने लेखन के दोषों को यूँ सार्वजनिक मंच से स्वीकार कर सकें।
‘जौहर’ बनाम ‘जौहरी’ वाले बिन्दु पर एक बार पुनः विचार करके देखें कि ‘जौहर’ बड़ा या ‘जौहरी’...? हाऽऽहाऽऽ हाऽऽ...!
आपके चिंतन-लोक से काफी प्रभावित हूँ, आता रहूँगा समय-समय पर! ...और हाँ, यदि कभी भूल भी जाऊँ, तो मुझे बुला लिया करियेगा...मुझे अच्छा लगेगा!
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@ इमरान अंसारी भाई,
अस्लामुअलैकुम!
आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं!? हम-सब बराबरी का हक़ रखते हैं...कभी कोई ऐसा भाव मन में न लाइएगा...मेरे प्यारे भाई!