जिसने जाना राज अनोखा
मुँदे नैन में झलक उसी की
खोया मन आहट पा उसकी,
गूँज रही रह-रह कोई धुन
अधरों पर स्मित, बात उसी की !
कितना अद्भुत खेल रचा है
खुद को ढूँढे खुदी छुपा है,
जिसने जाना राज अनोखा
जीवन उसने ही जीया है !
सब कुछ करे पर कुछ न करता
एक साथ सभी दुःख हरता,
ख़ुद बाँधे थे बंधन सारे
हँस-हँस के हर बोझ उतरता !
श्वास-श्वास धरे स्मृति उसी की
फिर भी पहुँच न उस तक होती,
कदम-कदम है उसकी पूजा
कह कह पूरी बात न होती !
जाने हैं सब किसको ध्यायें
किसके पथ में नयन बिछाएं,
लेकिन जब तक मुड़ें न भीतर
खुद को हम क्योंकर ही पाएँ !
अनिता निहालानी
२३ नवम्बर२०१०
....लेकिन जब तक मुड़ें न भीतर
जवाब देंहटाएंखुद को हम क्योंकर ही पाएँ !
अद्भुत,सच्ची अभिव्यक्ति!वाह!
कितना अद्भुत खेल रचा है
जवाब देंहटाएंखुद को ढूंढे खुदी छुपा है,
जिसने जाना राज अनोखा
जीवन उसका धन्य हुआ है !
adbhut hi hai ....
खुद को खुद से मिलाती रचना ....बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता....इस बार आपने तस्वीर का भी बहुत सुन्दर प्रयोग किया है...सच कहूँ तो तस्वीर पोस्ट में चार चाँद लगा देती है.....ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं......शुभकामनायें|
"कितना अद्भुत खेल रचा है
खुद को ढूंढे खुदी छुपा है,
जिसने जाना राज अनोखा
जीवन उसने ही जिया है !"
मुझे लगता है यहाँ 'जिया' की जगह 'जीया' होना चाहिए था|
इमरान जी, आपने बिल्कुल सही कहा है, 'जीया' ही होना चाहिए, धन्यवाद ! यह तस्वीर दुलियाजान के निकट बह रही एक नदी की है.
जवाब देंहटाएंकिसकी बात करें-आपकी प्रस्तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्ददायक हैं।
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