उत्सव के बाद
रह रह कर मस्ती की गागर
जाने किसने भीतर फोड़ी,
अनजानी सी कुछ अनछूई
खुशियों की चादर है ओढ़ी I
नेह पगा मन टपकाए जो
रस की मधुरिम धार नशीली,
बिन कारण अधरों पर अंकित
कोमल सी मुस्कान रसीली I
न स्मृतियाँ न स्वप्न ही कोई
भीतर एक खाली आकाश,
उसी शून्य से झर झर झरता
मदमाता स्नेहिल प्रकाश I
कदमों में थिरकन भर जाता
हाथों में ऊर्जा वह अभिनव,
नयनों में जल प्रीत है भरा
मन अंतर में आह्लाद प्रणव I
गुनगुन करता कोई विहरे
चेतनता का गूंजता गान,
तार जुड़ें जब हों अदृश्य से
बिन साधे लगता है ध्यान I
उत्सव के उल्लास में डूबा
जाने कौन पाहुना आया,
मन जब अपने घर को लौटा
चैन जहाँ भर का फिर पाया I
अनिता निहालानी
६ नवम्बर २०१०
उत्सव के उल्लास में डूबा जाने कौन पाहुना आया, मन जब अपने घर को लौटा चैन जहाँ भर का फिर पाया I
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना
आदरणीय अनिता जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
गुनगुन करता कोई विहरे
जवाब देंहटाएंचेतनता का गूंजता गान,
तार जुड़ें जब हों अदृश्य से
बिन साधे लगता है ध्यान I
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अनीता जी...... दिल को छू गईं .
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना, भाव से परिपूर्ण, उत्सव के उल्लास में डूबा ........बधाई
जवाब देंहटाएंआप सभी का आभार और अभिनदंन उत्सव के उल्लास में डूबने के लिये!
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