रविवार, फ़रवरी 5

ऊपर हँसते भीतर गम था


ऊपर हँसते भीतर गम था


जाने कैसी तंद्रा थी वह
कितनी गहरी निद्रा थी वह,
घोर तमस था मन पर छाया
ढके हुए थी सब कुछ माया !

एक विचारों का जंगल था
भीतर मचा महा दंगल था,
खुद ही खुद को काट रहे थे
कैसा फिर ? कहाँ मंगल था !

अपनों से ही की थी दुश्मनी
कभी किसी सँग बात न बनी,
एक अबूझ डर भीतर व्यापा
भृकुटी रही सदा ही तनी !

एक नर्क का इंतजाम था
आधि-व्याधि का सरंजाम था,
ऊपर हँसते भीतर गम था
भावनाओं का महा जाम था !

लेकिन कोई भीतर तब भी
जाग रहा था देखा जब भी
बड़ा सुकून मिला करता था
बाहर लेकिन दुःख था अब भी

धीरे-धीरे वह मुस्काया
पहले पहल स्वप्न में आया,
सहलाया रिसते जख्मों को
फिर तो अपने पास बुलाया !

एक झलक अपनी दिखलाई
लेकिन फिर न पड़े दिखाई,
एक खोज फिर शुरू हो गयी
भीतर की फिर दौड़ लगाई !

कही प्रार्थना अश्रु बहाए
निशदिन मन उसको ही बुलाए,
दिन भर काम में भूल गया हो
पर नींदों में वही सताए !

शनैः शनैः फिर राह मिल गयी
आते-जाते कली खिल गयी,
सुरभि बिखेरे अब विकसित हो
जब प्रमाद की चूल हिल गयी !

अब तो मीत बना है मन का
भेद बड़ा पाया जीवन का,
उससे मिलने ही हम आये
यही लाभ है सुविधा धन का !  





9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन रचना अनीता जी...

    सादर.

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  2. wah aap to bahut jaldi pa gaye....ham jaise moodhmati ko to kayi janm lagenge. bahut prabhavi lekhan.

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    1. अनामिका जी, वह अनंत है...बूंद भर भी मिल जाए या झलक ही मिल जाये तो बात बन जाती है..सदगुरु कहते हैं वह तो सबको मिला ही हुआ है...बस पहचान भर करनी है. इसमें समय नहीं लगता...

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  3. प्रभावशाली सशक्त रचना ..अनीता जी बधाई...

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  4. शब्द नहीं है मेरे पास अनीता जी.........सिर्फ इतना हैट्स ऑफ |

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  5. अब तो मीत बना है मन का
    भेद बड़ा पाया जीवन का,
    उससे मिलने ही हम आये
    यही लाभ है सुविधा धन का !

    ......बहुत भावमयी और सारगर्भित सशक्त प्रस्तुति..बधाई !

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