मनु की सन्तान को
मन की झील में
आत्मकमल खिलाना है
आदतों व संस्कारों की मिट्टी
है जहाँ
वहीं से भेध कर
सुवास को जगाना है
किन्हीं रंगों को सजाना है
छिपा है एक स्रोत मधुर
अतल गहराई में
माना होंगी चट्टानें भी मध्य में
कठिन होगी यात्रा
पर जो अपना ही है सदा से
वह सरसिज तो बाहर लाना है
अंतस की झील में जलज बसाना है
वहीं से भेध कर
जवाब देंहटाएंसुवास को जगाना है--
बढ़िया प्रस्तुति है आदरेया-
आभार आपका
बहुत सुंदर भाव ...सुंदर अभिव्यक्ति .....
जवाब देंहटाएंसुंदर भावों की अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर कविता ..शुभकामनाएं ..
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जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है शब्द सौंदर्य देखते ही बनता है रचना का शब्द चयन भी अर्थपूर्ण सौंदर्य लिए है।
बहुत सुन्दर शब्दों में अव्यक्त को व्यक्त किया है आपने !
जवाब देंहटाएं(नवम्बर 18 से नागपुर प्रवास में था , अत: ब्लॉग पर पहुँच नहीं पाया ! कोशिश करूँगा अब अधिक से अधिक ब्लॉग पर पहुंचूं और काव्य-सुधा का पान करूँ | )
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स्वागत है आपका
हटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति..आभार..
जवाब देंहटाएंअध्यात्म का पुट लिये सुंदर कविता। इस आत्मकमल को खिलाने के लिये करने होंगे अथक परिश्रम।
जवाब देंहटाएंआदतों व संस्कारों की मिट्टी है जहाँ
जवाब देंहटाएंवहीं से भेध कर
सुवास को जगाना है
बिलकुल सच कहा ये आदतें और संस्कार ही दीवार बन जाते हैं |
राजेश जी, बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंरविकर जी, वीरू भाई, इमरान, माहेश्वरीजी, आशा जी, अनुपमा जी, अमृता जी, व रंजना जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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