सोमवार, नवंबर 25

मनु की सन्तान को


मनु की सन्तान को


मन की झील में
आत्मकमल खिलाना है
 आदतों व संस्कारों की मिट्टी है जहाँ
वहीं से भेध कर
सुवास को जगाना है
किन्हीं रंगों को सजाना है
 छिपा है एक स्रोत मधुर
अतल गहराई में
माना होंगी चट्टानें भी मध्य में
कठिन होगी यात्रा
पर जो अपना ही है सदा से
वह सरसिज तो बाहर लाना है
अंतस की झील में जलज बसाना है 

12 टिप्‍पणियां:

  1. वहीं से भेध कर
    सुवास को जगाना है--

    बढ़िया प्रस्तुति है आदरेया-
    आभार आपका

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  2. बहुत सुंदर भाव ...सुंदर अभिव्यक्ति .....

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  3. सुंदर भावों की अभिव्यक्ति !!

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  4. अति सुन्दर कविता ..शुभकामनाएं ..

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  5. वाह क्या बात है शब्द सौंदर्य देखते ही बनता है रचना का शब्द चयन भी अर्थपूर्ण सौंदर्य लिए है।

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  6. बहुत सुन्दर शब्दों में अव्यक्त को व्यक्त किया है आपने !
    (नवम्बर 18 से नागपुर प्रवास में था , अत: ब्लॉग पर पहुँच नहीं पाया ! कोशिश करूँगा अब अधिक से अधिक ब्लॉग पर पहुंचूं और काव्य-सुधा का पान करूँ | )
    नई पोस्ट तुम

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  7. बहुत खूबसूरत प्रस्तुति..आभार..

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  8. अध्यात्म का पुट लिये सुंदर कविता। इस आत्मकमल को खिलाने के लिये करने होंगे अथक परिश्रम।

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  9. आदतों व संस्कारों की मिट्टी है जहाँ
    वहीं से भेध कर
    सुवास को जगाना है

    बिलकुल सच कहा ये आदतें और संस्कार ही दीवार बन जाते हैं |

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  10. राजेश जी, बहुत बहुत आभार !

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  11. रविकर जी, वीरू भाई, इमरान, माहेश्वरीजी, आशा जी, अनुपमा जी, अमृता जी, व रंजना जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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