कोई
हर प्रातः सूर्य किरणों पर चढ़
पुहुपों के अंतर को छूकर
ओस कणों से ले नरमी
खग पाखों से ले गरमी
कोई वसुंधरा पर उतरे !
हर साँझ रंग आंचल में भर
वृक्षों की फुनगी पर जाकर
रिमझिम फुहार से ले नमी
सतरंगी आभा पा थमी
कोई नजर नयन में कांपे !
हर रात्रि चाँदनी वसन ओढ़
जुगनू की नीली छवि छूकर
संध्या तारे से ले चमक
ढलते सूरज से ले दमक
कोई दूर क्षितिज से झांके !
अंतर ऊष्मा से स्पन्दित हो
पर दुःख से द्रवीभूत कातर
ले उच्छ्वासों से असीम वेग
श्वासों से ऊर्जित संवेग
कोई कवि कंठ बन गाए !
अंतर ऊष्मा से स्पन्दित हो
जवाब देंहटाएंपर दुःख से द्रवीभूत कातर
ले उच्छ्वासों से असीम वेग
श्वासों से ऊर्जित संवेग
कोई कवि कंठ बन गाए !
बहुत सुन्दर रचना !
नई पोस्ट काम अधुरा है
behtreen....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ "कवि दिनकर" याद आते हैं.....
सादर
अनु
बहुत बढ़िया भाव-
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया-
पत्तों ने नाता तोडा
जवाब देंहटाएंहरियाली ने मुंह मोडा
चुभती थी शुष्क हवाऐं
शाखों ने धीरज छोडा
तब ठूंठ बने पेडों पर
फूटीं कोमल मुस्कानें
वे नूतन किसलय कब थे
वे तेरे दो अक्षर थे ।
उस अदृश्य ईश्वर की सत्ता सो ही आलोकित है सारा विश्व । बहुत सुन्दर कविता अनीताजी .
वाह ! उसके अक्षर ही तो कदम कदम पर लिखे हुए हैं...आभार गिरिजा जी
हटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १२ /११/१३ को चर्चामंच पर राजेशकुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है
जवाब देंहटाएंअभार राजेश जी !
हटाएंकालीपद जी, रविकर जी, अनु जी, यशवंत जी, सुषमा जी व राजीव जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंकल 13/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
आभार !
हटाएंअच्छी कविता किंतु शीर्षक से समझ नही आया
जवाब देंहटाएंमनु जी, कविता समझने की कम महसूस करने की विधा ज्यादा है..
हटाएंप्रकृति कि ये अनुपम छटा उस एक का ही विस्तृत स्वरुप है......अति सुन्दर |
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएं:-)
बहुत सुन्दर व शालीन वर्णन , श्री अनीता जी
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन --: जानिये क्या है "बमिताल"?
भोर से रात्री तक का दर्शन ... प्राकृति की सत्ता को प्रणाम है ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब जी
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