पलट गया है मन
तृप्ति की शाल ओढ़े
सिमट गया मन
दौड़-भाग बंद हुई
खत्म हुआ खेल सब
देखो कैसे मौन हुआ
खुल गयी पोल जब
बातें बनाता था
सपने दिखाता था
स्वयं ही बना कर महल
खुद ही गिराता था
घर का पता मिल गया
लौट गया मन
झूठी थीं शिकायतें
झूठे ही आरोप सब
कुर्सी बचाने को
लगाये प्रत्यारोप सब
राई का पर्वत बना
स्वयं भला बना कभी
दूजों की टांग खींची
बाल की खाल भी
राज सारे खुल गए
पलट गया मन !
बहुत सुन्दर भाव.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : यादें
मन की तृप्ति के बिना संसार में कोई तृप्ति नहीं है, क्योंकि संसार मन का फैलाव है, विस्तार है। गहन भाव
जवाब देंहटाएं'घर का पता मिल गया
जवाब देंहटाएंलौट गया है मन'
देर सवेर आना ही होता है मन को घर
जहाँ सुकून की चाहतें जा चुकी होती हैं Anil Dayama 'Ekla': निर्भया: सभ्य समाज का सच
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
हटाएंअति का परिणाम यही होता है -अच्छा लिखा है !
जवाब देंहटाएंलक्ष्यों को पूरा करते-करते मन को तो पूछना पड़ता ही है- क्या खोया क्या पाया.
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव..मन पलटने की बात
जवाब देंहटाएंजब जीवन की दौड़ भाग से थक जाता है तो लौटना ही पड़ेगा मन को...बहुत सारगर्भित और प्रवाहमयी प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंराजीव जी, प्रतिभाजी, निहार जी, रश्मि जी, कैलाश जी, संध्या जी, अनिल जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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