शांत झील के दर्पण पर
जैसे कोई फूलों वाली
डाल अचानक झर जाए,
या फिर तपती भू पर बादल
बरबस यूँ ही बरस जाए !
हो निस्तब्ध रात्रि बेला
बिखरी हो ज्योत्स्ना मधुरिम,
शांत झील के दर्पण पर या
सोया हो पंकज रक्तिम !
नील गगन में ओढ़े बदली
लुक-छुप नाज दिखाए चंदा,
भोर अभी होने को ही हो
पंछी का हो स्वर मंदा !
वैसा ही उसका आना है
बरसों जिसे पुकारा पाहुन,
उर उपवन दिप-दिप कर झूमे
मदमाता मन का प्रांगण !
सुन्दर....अति सुन्दर !!
जवाब देंहटाएंसादर
अनुलता
कल 04/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत बहुत आभार !
हटाएंउसी का आभास - हर सुन्दर भाव में !
जवाब देंहटाएंअनु जी, ओंकार जी व प्रतिभा जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर आभार ... जो मधुर रहता है ... उनका आभास ...
जवाब देंहटाएंगहरे शब्द.... दूर की बात
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