शुक्रवार, दिसंबर 19

मन को जरा पतंगा कर ले

मन को जरा पतंगा कर ले

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कौन से सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल-खिल जायेंगे उपवन भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े  को गाले !


8 टिप्‍पणियां:

  1. स्व-दर्शन ही तो सुदर्शन है गर कोई समझे तो सारी मृगमरिचीका खत्म हो चले ।

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  2. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना |

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  3. सूर्य उगा है नीले नभ में
    खिडकी खोल उजाला भर ले,
    दीप जल रहा तेरे भीतर
    मन को जरा पतंगा कर ले ...वाह..;क्‍या बात है..बहुत सुंदर

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  4. एक पुकार मिलन की जागे
    खुद से मिलकर जग को पाले,
    सहज गूंजता कण कण में जो
    उस पावन मुखड़े को गाले !

    सुंदर प्रस्तुति।

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  5. सकारात्मकता बहुत ही जरूरी है जीवन में. सुन्दर रचना.

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  6. निहार जी, अंकुर जी, रश्मि जी, ओंकार जी, यशवंत जी, आशा जी, अनिल जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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