मंगलवार, फ़रवरी 24

पंख बिन ही उड़ रहा है

पंख बिन ही उड़ रहा है



मिट गया चुपचाप भू में
खिल उठा वह ही गगन में,
गंध बन कर डोलता भी
मुस्कुराता है चमन में !

हट गया चुपचाप मग से
घट भरा वह ही मिलन से,
पंख बिन ही उड़ रहा है
प्रीत की सोंधी लगन से !

खो गया जो व्यर्थ ही था
पा लिया इक अर्थ सुंदर,
झर गया ज्यों जीर्ण जर्जर
नव मिला तब लक्ष्य मनहर !

7 टिप्‍पणियां:

  1. जो व्यर्थ है उसका खो जाना ही बेहतर है ... खोने के बाद ही प्राप्ति है ...

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  2. सच कहा . नीव में लगने की चाह रखने वाले ही शिखर बनते हैं . जो खुद को तपा देता है वही अपना अभीष्ट पाता है .

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  3. उल्लास का आनन्द - सुन्दर अभिव्यक्ति !

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  4. प्रभात जी, दिगम्बर जी, गिरिजा जी, माहेश्वरी जी तथा प्रतिभा जी, आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. मन के भावो को बहुत ही सादगी और सुन्दरता से व्यक्त किया है..बहुत ही खुबसूरत रचना... :-)

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