शुक्रवार, फ़रवरी 6

अब जब कि


अब जब कि

अब जब कि हो गयी है सुबह
क्यों अंधेरों का जिक्र करें,
चुन डाले हैं पथ से कंटक सारे
क्यों पावों की चुभन से डरें !

अब जब कि छाया है मधुमास
अँधेरी सर्द रातों को भूल ही जाएँ,
खिले हैं फूलों के गुंचे हर सूं
क्यों दर्द को गुनगुनाएं !

अब जब कि धो डाला है मन का आंगन
आँधियां धूल भरी क्यों याद रहें,
सुवासित है हर कोना वहाँ
क्यों कोई फरियाद आये !

अब जब कि हो गया है मिलन
विरह में नैन क्यों डबडबायें
बाँधा है बंधन अटूट एक
भय दूरी का क्यों सताए !



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