सोमवार, जून 8

रौशनी का दरिया


चलना है बहुत पर पहुँचना कहीं नहीं  
किताबे-जिंदगी में आखिरी पन्ना ही नहीं

घर जिसे माना निकला पड़ाव भर
सितारों से आगे भी है एक नगर

दिया हाथ में ले चलना है सफर पर
साथ नहीं कोई न कोई फिकर कर

जुबां नहीं खोलता वह चुप ही रहता है
रौशनी का दरिया खामोश बहता है

बिन बदली बरखा बिन बाती दीपक जलता
कहा न जाये वर्तन कभी न वह सूरज ढलता  

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर, भावपूर्ण और प्रवाहमयी रचना

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  2. घर जिसे माना निकला पड़ाव भर
    सितारों से आगे भी है एक नगर

    बहुत उम्दा.......वाह्ह्ह्ह्ह्ह

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  3. हिमकर जी, जितेन्द्र जी, देवेन्द्र जी, स्वागत व आभार !

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  4. स्वागत व आभार मधुलिका जी

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  5. चित्र के साथ कविता बहुत अच्छी लगी...

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