सोमवार, अगस्त 3

जाने किसने निज वैभव से



जाने किसने निज वैभव से


सुख सागर में ले हिचकोले
मनवा धीरे-धीरे डोले,
कहाँ से पायी मस्ती मद की
राज न लेकिन कोई खोले !

नहीं जानता शायद खुद भी
रस की गगरी कौन पिलाये,
रहे ठगा सा, भर कर आंचल
नेह की बरखा में नहलाये !

नजर नहीं मिली अभी जिससे
उसके ही संदेसे आते,
हर लेते हर उलझन उर की
मधुर रागिनी बन गुंजाते !

मन जो बिखरा-बिखरा सा था
उसे समेट पिरोई माला,
जाने किसने निज वैभव से
प्रीत के घूँट पिलाकर पाला !

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    मन जो बिखरा-बिखरा सा था
    उसे समेट पिरोई माला,
    उत्तम..
    कितना मुश्किल है
    बिखरे मन को समेटना
    देर से दिखी ये रचना
    कल का अंक अभी शिड्यूल की हूँ
    बुधवार के लिए अलग से सूचित करेंगे कुलदीप भाई

    सादर

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  2. बहुत सुंदर रचना !!सकारात्मकता से लबरेज़ ...!!

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  3. नहीं जानता शायद खुद भी
    रस की गगरी कौन पिलाये,
    रहे ठगा सा, भर कर आंचल
    नेह की बरखा में नहलाये !
    ...बहुत सुन्दर

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  4. मन जो बिखरा-बिखरा सा था
    उसे समेट पिरोई माला,
    जाने किसने निज वैभव से
    प्रीत के घूँट पिलाकर पाला !

    सुंदर भाव. सुंदर गीत.

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  5. मन जो बिखरा-बिखरा सा था
    उसे समेट पिरोई माला,
    जाने किसने निज वैभव से
    प्रीत के घूँट पिलाकर पाला !
    ....सच में बहुत आवश्यक है मन को समेटना उस प्रिय से मिलने को...बहुत सुन्दर और गहन गीत..

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  6. अनुपमा जी, कविता जी, कैलाश जी व रचना जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  7. बहुत बहुत आभार कुलदीप जी !

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