शुभकामनायें
समय के कुंड में.. डलती रही
प्रीत की समिधा
दो तटों के मध्य में.. बहती रही
प्रीत की सलिला
बीत गये चार दशक कई पड़ाव आए
पुहुप कितने भाव से जग में उगाए
भाव सुरभि है बिखरती
नव कलिकायें विहंसती
जिंदगी अब खिल रही है
चल रहा है इक सफर
मीत मन का साथ हो तो
सहज हो जाती डगर !
लें बधाई आज दिल में
स्वप्न की ज्योति जलेगी
मिल मनाएंगे
दिवस फिर
जब जयंती स्वर्ण होगी !
आनंद दायक है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वर्ण जयंती की प्रतीक्षा भी मन में पुलक भर रही है न !
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने..स्वर्ण जयंती की प्रतीक्षा दीदी को भी है जिनके लिए यह कविता लिखी थी और हम सबको भी..
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