सोमवार, अक्तूबर 26

मौन की नदी

मौन की नदी

तेरे और मेरे मध्य कौन सी थी रुकावट
दिन-रात जब आती थी तेरे कदमों की आहट
तब राह रोक खड़ी हो जाती थी मेरी ही घबराहट !
कहाँ तुझे बिठाना है, क्या-क्या दिखलाना है
बस इसी प्रतीक्षा में... दिन गुजरते रहे
तुझे पाने के स्वप्न मन में पलते रहे
एक मदहोशी थी इस ख्याल में
तू आयेगा इक दिन इस बात में
और आज वह आस टूटी है
हर कशमकश दिल से छूटी है
अब न तलाश बाकी है न जुस्तजू तेरी
कोई आवाज भी नहीं आती मेरी
खोजी थे जो.. कहीं नहीं हैं वे नयन
शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! 

6 टिप्‍पणियां:

  1. आस के न रहने पर सब समाप्त हुआ सा ही लगता है. लेकिन यह एक नयी शुरुआत का मार्ग भी ढूंढने को विवश करता है.

    सुंदर भावपूर्ण कविता.

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  2. दिल टूटकर भी उन्हें ही याद करता है जिसे दिल चाहता था कभी ...लाख कोशिश करो भूले न भूलते वे लम्हें ...
    बहुत सुन्दर

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  3. शेष अब न विरह कोई न वह लगन ! ----- एक विश्वास भरा सच
    प्रेम का अनकहा सच
    वाह बहुत खूब
    सादर

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  4. रचना जी, यशोदा जी, कविता जी व ज्योति जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. कुछ स्तब्धता की सी स्थिति अंतिम पंक्तियों में बहुत मुखर हो गई है.

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  6. शब्दों के मध्य अन्तराल को पढने की आपमें अद्भुत क्षमता है..प्रतिभा जी !

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