चार कदम पर ही है होली
मधु टपके बौराया उपवन
जाने कहाँ से रस भरता है,
गदरायीं मंजरियाँ महकें
संग समीरण के बहता है !
हुई नशीली फिजां चहकती
फगुनाई सिर चढ़ कर बोली,
रंग-बिरंगी बगिया पुलके
चार कदम पर ही है होली !
नन्ही चिड़िया हरी दूब पर
नई फुनगियाँ हर डाली पर,
कोई भेज रहा है शायद
पाती गाता पंछी सुस्वर !
हर पल जीवन उमग रहा है
कभी धरा से कभी गगन से,
अंतर में यूँ भाव उमड़ते
धुंधलाया हर दृश्य नयन से !
धूप और छाँव हर पल हैं
दिवस-रात्रि, सुख-दुःख का मेला,
हास्य-रुदन दोनों घटते हैं
प्रीत बहाए दुई का रेला !
एक से ही उपजे हैं दोनों
पतझड़ और बसंत अनूठे,
विस्मय से भर जाता अंतर
दोनों के ही ढंग अनोखे !
बहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
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