प्रीत बहे धार सी
मन सपने बुनता है
फिर-फिर सिर धुनता है,
जीवन की बगिया से
कांटे ही चुनता है !
जन्नत बनाने का
भीतर सामान है,
दोजख की आग में
व्यर्थ ही भुनता है !
स्वयं को ही कैद करे
झूठी दीवारों में,
ख्वाबों में गाए कभी
गीत वही सुनता है !
मन जो ठहर जाये
डोर कोई थाम ले,
प्रीत बहे धार सी
मन्त्र सा गुनता है !
प्रीत की धार बहा रही है ।
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