सोमवार, मई 29

आँसू बनकर वही झर गया


आँसू बनकर वही झर गया


दुःख की नगरी में जा पहुँचे,
निकले थे सुख की तलाश में, 
अंधकार से भरे नयन हैं  
खोल दिये जब भी प्रकाश में ! 

फूल जान जिसे कंठ लगाया, 
काँटे बनकर वही बिँध गया,  
अधरों पर जो मिलन गीत था 
आँसू बनकर वही झर गया !

तलविहीन कूआं था कोई 
 किया समर्पित हृदय जिस द्वार,
जहाँ उड़ेला भाव प्रीत का 
पाषाण की निकली दीवार ! 

स्वप्न भरे थे जिस अंतर में,
सूना सा वह बना खंडहर
बात बिगड़ती बनते-बनते, 
दिल में पीड़ा बहे निरंतर ! 


3 टिप्‍पणियां:

  1. दिल को छूती बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  2. स्वागत व आभार कैलाश जी..!

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  3. ये होता है जान इच्छा जागती है ... अन्यथा जीवन तो यही है .. दुःख निरंतर है .. ख़ुशी पल भर है ... यही जीवन है

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