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सोमवार, अगस्त 25

जीवन बीता ही जाता है

जीवन बीता ही जाता है


ज्वालामुखी दबे हैं भीतर 

काश ! हमें सावन मिल जाता, 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों से फिर 

अंतर  का उपवन खिल जाता !


बाहर अंबर बरस रहा है 

भू हुलसे पादप हँसता है, 

किंतु गई पीर नहीं मन की 

जीवन बीता ही जाता है !


यूँ तो अंचल में हैं ख़ुशियाँ 

कोई कहीं अभाव नहीं है, 

लेकिन फिर भी उर के भीतर 

कान्हा वाला भाव नहीं है !


काव्यकला में ह्रदय न डूबे 

मोबाइल से नज़र न हटती, 

फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको 

हर द्वारे से दुनिया आती !


कैसे अंतर रस में भीगे 

कैसे सावन की रुत भाये, 

जीवन भी जब फिसला जाता 

मौत का ताँडव यही रचाये !


रविवार, अगस्त 17

कृष्ण की याद

कृष्ण की याद 


जैसे कोई फूल खिला हो 

अमराई में 

जैसे कोई गीत सुना हो 

तनहाई में 

जैसे धरती की सोंधी सी 

महक उठी हो 

जैसे कोई वनीय बेला 

गमक रही हो 

या फिर कोई कोकिल गाये 

मधु उपवन में 

जैसे गैया टेर लगाये 

सूने वन में 

श्याम मेघ तिरते हो जैसे 

नीले नभ में 

झूमे डाल कदंब कुसुम की 

नन्दन वन में 

यमुना का गहरा नीला जल 

बहता जाये 

कान्हा यहीं कहीं बसता है 

कहता जाये !


रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


मंगलवार, अक्टूबर 1

मिट जाएँगे संशय उर से

मिट जाएँगे संशय उर से 


झाँकें कान्हा के नयनों में

प्रेम समंदर एक झलकता, 

डूब गई थी राधा जिसमें 

थाह न कोई जिसकी पाता !


अनगिन नाम दिये हैं जग ने

बाला-लाला कहा कन्हाई, 

प्रीत किंतु इतनी असीम है

जाती न शब्दों में बताई !


सुख-दुख दोनों रहे किनारे 

मध्य में आनंद की धारा, 

राधा बनकर जो बहती है 

यमुना तट पर जिसे पुकारा !


आनंद से उपजी है सृष्टि 

कृष्ण वही आनंद का स्रोत, 

हाथ थाम लें, उसे थमा दें  

 मिटेगा दोनों में हर क्षोभ !


कान्हा दिल की गहराई में 

बसा हुआ मीठी धुन टेरे 

कान लगा कर सुनना इसको 

खिल जाएँगे तन-मन तेरे !



बुधवार, सितंबर 18

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

कान्हा गये गोकुल छोड़ 

उसके अगले दिन 

सुबह सूरज के जगने से पूर्व 

जग गई थीं आँखें 

तकतीं सूनी राह 

लकीरें खींचते स्वचालित हाथ 

फिर एक बार, बस एक बार 

तुम आओगे ? शायद तुम आओ 

कानों में मधुरिमा घोलती आवाज़ 

कागा की !

जैसे राधा का तन-मन 

बस उस एक आहट का प्यासा हो 

युगों से, युगों-युगों से 

उठे नयन उस ओर, हुए नम 

एकाएक प्रकट हुआ वह 

हाँ, वही था 

फिर हो गया लुप्त 

संभवतः दिया आश्वासन 

यहीं हूँ मैं !

यह यमुना, कदंब और बांसुरी 

अनोखे उपहार उसके 

हँस दीं आँखें राधा की 

विभोर मन, पागल होती वह 

संसार पाकर भी नहीं पाता 

और आँखें ढूँढ निकलती हैं 

स्वप्न ! सुनहरे-रूपहले स्वप्न 

जिन्हें सच होना ही है 

वे सच होंगे, प्रतीक्षा रंग लाएगी 

सूरज आएगा, धरती पीछे 

रचे जाएँगे गीत 

नये, अप्रतिम, अछूते 

हर युग में ! 


मंगलवार, फ़रवरी 13

दूर हुए पर हृदय निकट थे


दूर हुए पर हृदय निकट थे

​​

सिया-राम के मध्य बहा जो प्रेम भरा दरिया अपार था, दूर हुए पर हृदय निकट थे कान्हा-राधिका में प्यार था ! सत्यवान संग जा यमलोक सावित्री की प्रीत अनोखी, महल-दुमहले तज कर निकली नहीं भक्त मीरा सी देखी ! ऐसे ऊँचे मानदंड हों प्रेम दिवस तभी मने सार्थक, मृत्यु भी न विछोह कर पाये ऐसा हो उर अमर समर्पण !


बुधवार, दिसंबर 21

कान्हा बंसी किसे सुनाए

कान्हा  बंसी किसे सुनाए


वरदानों से झोली भर दी 

पर हमने क़ीमत कब जानी, 

कितनी बार मिला वह प्रियतम 

किंतु कहाँ सूरत पहचानी !


आस-पास ही डोल रहा है 

जैसे मंद पवन का झोंका, 

कैसे कोई परस जगाए 

बंद अगर है हृदय झरोखा !


रुनझुन का संगीत बज रहा 

पंचम  सुर में कोकिल गाए, 

कानों में है शोर जहाँ का 

कान्हा  बंसी किसे सुनाए !


एक नज़र करुणा से भर के 

दे देती प्रकृति पुण्य प्रतीति, 

राहों के पाहन चुन-चुन कर 

जीवन में मधुरिम रव भरती !


अमर  अनंत धैर्यशाली वह 

हुआ सवेरा जब जागे तब,

आनंद लोक निमंत्रण देता 

लगन लगे मीरा वाली जब !




शनिवार, मार्च 27

अब समेटें धार मन की

अब समेटें धार मन की 


खेलता है रास कान्हा 

आज भी राधा के संग,  

प्रीत की पिचकारियों से 

डाल रहा रात-दिन रंग !


अब समेटें धार मन की 

जगत में जो बह रही है, 

कर समर्पित फिर उसी के 

चरण कमलों में बहा दे !


हृदय राधा बन थिरक ले  

 बने गोपी भावनाएं,  

उस कन्हैया के वचन ही 

  टेरते हों बंसी बने !


होली मिलन शुभ घटेगा 

तृप्त होगी आस उर की, 

नयन भर कर देख लें फिर 

अनुपम झलक साँवरे की !

 

शनिवार, अगस्त 1

आया अगस्त


आया अगस्त 

नव उजास नव आस लिए फिर 
नव प्रभात अगस्त ले आया, 
त्योहारों  का उल्लास लिए  
शुभ अष्टम सु-मास यह  आया !

रक्षा सूत्र बँधे हाथों में 
अंतर प्रीत प्रकट हो इनमें, 
अमर अदाह्य अभेद चेतना 
सदा अभय ही जाना जिसने !

राम बसे जो रोम रोम में 
महिमावान प्रभु पुनः विराजें, 
मंगलमय संदेश प्रेम का 
छाये, हर दुर्बलता त्यागें !

मोहक मधुर तीज हरियाली 
कान्हा का अवतरण दिवस भी, 
ध्वज आरोहण लालकिले पर 
गणपति का होगा पूजन  भी !

कौशल पा सब कर्मशील हों 
भारत की सुनीति शुभकारी
श्रद्धा सँग विश्वास पर टिकी,
शिक्षा में भी अब झलकेगी !

सदा रहे चहुँ ओर सुरक्षित 
सुंदर रीति नीति अपनाए, 
सजग और सतर्क रहकर ही 
स्वयं बचे और को बचाए !


शुक्रवार, अप्रैल 10

गीत यह अनमोल

गीत यह अनमोल

मीरा ने गाया था कभी गीत यह अनमोल लीन्हा री मैंने कान्हा.. बिन मोल ! कोई कृत्य जहाँ नहीं पहुँचता न कोई वाणी कोई पदार्थ तो क्या ही पहुँचेगा उस लोक में है जहाँ का वह वासी आज भी वह मिल रहा है अमोल ! क्यों उस निराकार को आकार दे नयन मुंद जाते हैं उस निरंजन को हम हर रंज में आवाज देते हैं वह जो है सदा हर जगह खो गया मानकर उसे पुकारते हैं ! जब तन अडोल हो और मन शून्य तब जो भीतर सागर सा गहरा और अम्बर सा विशाल कुछ भास आता है उसके पार ही वह प्रतीक्षारत है कुछ करके नहीं कुछ न करके ही, यानि बिन मोल उसे पाया जाता है वहाँ हमारा होना उसके होने में समा जाता है !

सोमवार, सितंबर 3

ऐसा दीवाना है कान्हा

ऐसा दीवाना है कान्हा 

आँसू बनकर जो बहता है 
मौन रहे पर कुछ कहता है
किसी नाम से उसे पुकारो
उपालम्भ जो सब सहता है ! 

  हो अनजाना कोई उससे 
तब भी वह रग-रग पहचाने
इक दिन तो पथ पर आएगा 
कब तक कोई करे बहाने! 

जब तक उसकी ओर न देखो 
नेह सँदेसे भेजा करता
कभी हँसा कर कभी रुलाकर 
अपनी याद दिलाया करता ! 

ऐसा दीवाना है कान्हा 
प्रीत पाश में ऐसा जकड़े
हाथ छुड़ा तब जाता लगता 
जब कोई खुद से ही झगड़े !

अँधियारी हो रात अमावस 
हीरे मोती सा वह दमके
काली यमुना उफन रही हो 
उजियारा बनकर वह चमके !


सोमवार, अगस्त 14

कान्हा तेरे नाम हजारों

कान्हा तेरे नाम हजारों

जब नभ पर बादल छाये हों
वन से लौट रही गाएँ हों,
दूर कहीं वंशी बजती हो
 पग में पायलिया सजती हो !

मोर नाचते कुंजों में हों
खिले कदम्ब निकुंजों में हों,
वह चितचोर हमारे उर को,
कहीं चुराए ले जाता है !

कान्हा याद बहुत आता है !

भादों की जब झड़ी लगी थी
अंधियारी अष्टमी आयी,
लीलाधर ! वह आया जग में
पावन वसुंधरा मुस्कायी !

कितनी हर्षित हुई देवकी,
सुसफल तपस्या वसुदेव की,
टूटे बंधन जब प्रकट हुआ
मिटा अँधेरा जग गाता है !

कृष्ण सभी के मन भाता है !

यमुना की लहरें चढ़ आयीं
मथुरा छोड़ चले जब कान्हा,
लिया आश्रय योगमाया का
नन्दगाँव गोकुल निज माना !

नन्द, यशोदा, दाऊ, दामा
बने साक्षी लीलाओं के,
माखन चोरी, ऊखल बंधन
दुष्ट दमन प्रिय हर गाथा है !

जन-जन नित्य जिन्हें गाता है !

मधुरातिमधुरम वेणु वादन
 ग्वाल-गोपियाँ मुग्ध हुईं सुन,
नृत्य अनूप त्रिभंगी मुद्रा
  राधा संग बजी वंशी धुन !

चेतन जड़, जड़ चेतन होते
गोकुल, ब्रज, वृन्दावन पावन,
युग बीते तेरी लीला से
नित नवीन रस जग पाता है !

कृष्णा नव रस भर जाता है !

कान्हा तेरे नाम हजारों,
मधुर भाव हर नाम जगाए,
कानों में घोले मिश्री रस
माखन सा अंतर पिघलाए !

तेरी बातें कहते सुनते
तेरी लीला गाते सुनते
न जाने कब समय का पंछी,
पंख लगाये उड़ जाता है !

अंतर मन को हर्षाता है !